१६८. पत्र : शंकरलाल बैंकरको
आश्रम
साबरमती
शनिवार, आषाढ़ सुदी ७, १७ जुलाई, १९२६
आपका पत्र मिला। मुझे लगता है कि हमें पंजीयन कराये बिना ही काम चलाना पड़ेगा। अधिकारी जिन शब्दोंको छोड़नेपर जोर देते हैं वे उन कार्योंको बताते हैं जो हमारी प्रवृत्तिके आवश्यक अंग हैं। अतः हम उन्हें किसी भी प्रकार छोड़ नहीं सकते, क्योंकि तो कांग्रेसके प्रस्तावके अंग हैं। किन्तु मेरे विचारसे भूलाभाई और अन्य लोग उनका जो अर्थ लगाते हैं, वह अर्थ ठीक नहीं है। मान लो 'कांग्रेसका संगठन'[१] के स्थानपर 'इस सरकारका संगठन'[२] शब्द हों, तो उसके अन्तर्गत होनेपर भी सभी परोपकारी संस्थाओंका पंजीयन हो सकता है। तब मेरी समझमें यह नहीं आता कि कांग्रेसके इस एक अंगका, जिसकी मुख्य प्रवृत्ति परोपकार है, पंजीयन क्यों नहीं किया जा सकता। लेकिन हम अधिकारियोंको तर्कोंसे थोड़े ही समझा सकते हैं? कार्यालयके बारेमें भाई नारणदास कल मुझसे भी मिले थे। उनका तर्क यह है कि अभीतकका खर्च तो लगभग सब बेकार ही गया है। लेकिन चार-पाँच दिनोंके लिए ही उतावली नहीं करनी चाहिए। अतः हम अब आरामसे बैठकर बातचीत करेंगे और तब इसका निर्णय करेंगे।
हॉनिमैनने 'भाई'के[३] विषयमें सार्वजनिक सभा करनेके बारेमें फिर तार दिया है और पत्र भी लिखा है। मैं उन्हें फिर इनकार लिख रहा हूँ। मेरे सिरमें दो-चार दिन थोड़ा दर्द रहा था। अब बिलकुल नहीं है। परन्तु जब था तब भी अधिक नहीं था।
गुजराती प्रति (एस० एन० १२२०४) की फोटो-नकलसे।