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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

भेज रहा हूँ। आपको और इतने मित्रों तथा सहयोगियोंको निराश करनेपर मुझे अत्यन्त खेद है। क्या प्रियजनोंका देहावसान कभी अप्रत्याशित होता है? सच तो यह है कि मैंने श्रीमती नायडू, पंडितजी और अन्य मित्रोंके सामने जब यह संकल्प किया था तो मैंने अपने मनमें ऐसी परिस्थितियोंकी कल्पना भी कर ली थी जिनको अप्रत्याशित कहा जा सकता था, और तब मैंने अपने आपसे यही कहा था कि दिवंगत मित्रोंकी शोकसभाओंके लिए मुझे अपना क्षेत्र-संन्यास नहीं छोड़ना चाहिए। अपने आप संकल्पित संयमको यदि हम एक बार ढीला करना आरम्भ कर दें तो फिर ढिलाईकी सीमा निर्धारित करना अत्यन्त कठिन हो जाता है। मैं भारत आया, उससे कहीं पहले उमरने देशसेवा प्रारम्भ कर दी थी। उनकी पुण्यस्मृतिमें आयोजित सभाको सफलताके लिए मेरा समर्थन आवश्यक नहीं है। मैं चाहता हूँ कि आप मेरा दृष्टिकोण समझें और मेरे साथ सहमत हों।

कृपया क्षमा करें।

हृदयसे आपका,

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १०९६४) से।

१६७. पत्र : मोतीबहन चोकसीको

आश्रम
साबरमती
शनिवार, १७ जुलाई, १९२६

चि० मोती,

तुम्हारा पत्र मिला। बिगड़े हुए स्वास्थ्यको सुधारना भी एक काम है। परन्तु यदि कोई स्वभावसे आलसी है तो वह स्वास्थ्य सुधारनेमें भी आलस्य करता है। तुम ऐसा तो नहीं करतीं? तुम्हें सावधान रहकर शीघ्र स्वस्थ हो जाना चाहिए।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती पत्र (एस० एन० १२१३१) की फोटो-नकलसे।