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१६१. पत्र: जफर-उल-मुल्क अल्वीको

आश्रम
साबरमती
१६ जुलाई, १९२६

प्रिय दोस्त,

आपका खत मिला। आश्रममें अपने आनेकी बाबत आपने जो-कुछ लिखा है उसपर मैंने गौर किया।

आपने जो योजना भेजी है उससे तो मुझे यह अकादमी एक अर्ध-सरकारी संस्था लगती है। सच पूछिये तो आपको क्या करना चाहिए इसका सबसे अच्छा फैसला तो आप खुद ही कर सकते हैं। अगर मैं आपकी जगह होता तो ऐसी संस्थामें, चाहे वह कितनी ही फायदेमन्द क्यों न होती, कभी शामिल न होता। हमारे असहयोगका रहस्य यही है कि हम इस पद्धतिकी उन सुख-सुविधाओंको त्याग दें जिनका भोग करना हमारे लिये जरूरी नहीं है। हमने असहयोग शुरू करते समय स्वेच्छासे कुछ सुख-सुविधाओंका त्याग करना तय कर लिया था। शिक्षा-संस्थाएँ उनमें से एक थीं। लेकिन मौजूदा हालातमें जबकि असहयोग व्यक्तियोंतक ही सीमित है, हर आदमीको अपने लिये स्वयं ही निर्णय करना चाहिए । और जिस कामको करनेमें किसीकी अन्तरात्मा कचोटती न हो, उस मामलेमें उसे असहयोग करना निस्संकोच छोड़ देना चाहिए।

यदि में हरएक स्वराज्यवादीके दिलमें कौंसिल छोड़नेके लिए जोश पैदा कर सकता तो मैं अपना सारा जोर इसीमें लगा देता। मैं जानता हूँ कि इससे लाभ भी बहुत होता। इसी तरह जो अपरिवर्तनवादी फिरसे अदालत में जाकर वकालत करते हैं या कौंसिलोंमें जाते हैं वे अपरिवर्तनवादी नहीं हैं। लेकिन मैं नहीं चाहता कि आप आँख मूंदकर असहयोगका पालन करें या किसी भी संस्थाके, चाहे आप उसकी कितनी ही इज्जत क्यों न करते हों, 'फतवे' को ही सिरमाथे लेकर चलें। अपने हर कामको जमीरकी कसौटीपर कसें-परखें और जिसके लिए आपका दिल गवाही दे उसीको बेहिचक करें।

हृदयसे आपका,

श्री जफर-उल-मुल्क अल्वी
लखनऊ

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० ११०७७ ए) की माइक्रोफिल्मसे।