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१५३. पत्र : कुरूर नीलकण्ठन नम्बूद्रिपादको

आश्रम
साबरमती
१५ जुलाई, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र और आपका तैयार किया हुआ निबन्ध मिला। क्या आप 'यंग इंडिया' नहीं पढ़ते? उसमें खादीकी पिछले पाँच वर्षोंकी प्रगतिपर प्रकाश डालते हुए तथ्य और आँकड़े दिये गये हैं। यदि आप चालू वर्षकी ही 'यंग इंडिया' की अपनी फाइल उठा कर देख लें, तो आपको उसमें सभी आँकड़े मिल जायेंगे। 'यंग इंडिया' के पृष्ठोंसे सारे आँकड़े यहीं इकट्ठे कराना यहाँके लोगोंकी कार्य-शक्तिपर अतिरिक्त भार डालना होगा, जबकि उनको अपने रोजके कामसे ही फुर्सत नहीं मिल पाती।

स्कूलोंमें वैज्ञानिक ढंगसे जो प्रयोग किया जा रहा है, वह श्रीमती अनसूयाबाईकी देखरेखमें चलनेवाले २४ स्कूलोंमें हो रहा है। इन स्कूलोंमें १,६०० लड़के-लड़कियों की उपस्थिति है। सारी कताई तकलीसे की जाती है। यद्यपि स्कूलोंके सभी शिक्षक तकलीसे कातना जानते हैं, फिर भी उन्हें सब बच्चोंकी तरह कातना पड़ता है। उनके कातनेके लिए कुछ निश्चित समय अलग रखा गया है। और इस तरह काते हुए सूतको खादीका रूप दे दिया जाता है, जिसे कई जगहोंपर तो खुद बच्चे ही इस्तेमाल करते हैं।

अनुभवसे हमने यही सीखा है कि स्कूलोंके लिए तकली ही सबसे अच्छी रहती है। तकली हल्की रहती है। वह बिगड़ती नहीं है। सस्ती है और ज्यादा जगह नहीं घेरती है तथा हजारों लोग उससे एक साथ कताई कर सकते हैं; और यद्यपि चरखेकी अपेक्षा एक तकलीपर प्रति घंटा सूत बहुत कम काता जाता है, कुल मिलाकर तकलीपर कताईका परिणाम स्कूलोंमें चरखेकी कताईके परिणामकी अपेक्षा केवल इस कारण बहुत ज्यादा होता है कि सभी बच्चोंसे एक साथ चरखेपर कताई नहीं कराई जा सकती; और एक स्कूलमें केवल कुछ सीमित संख्यामें ही चरखे मुहैया किये जा सकते हैं।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत कुरूर नीलकण्ठन नम्बूद्रिपाद

त्रिचूर

(कोचीन राज्य)

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० ११२०१) को माइक्रोफिल्मसे।