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अहिंसा— सबसे बड़ी ताकत

आर्थिक संघर्ष दिनोंतक चलनेवाली पीड़ा। युद्धसाहित्य कहलानेवाले साहित्यमें युद्धके जो परिणाम वर्णन किये जाते हैं, इसके दुष्परिणाम उनसे कम भयानक नहीं हैं। हम इस दूसरे युद्ध (आर्थिक) को अधिक महत्त्व नहीं देते क्योंकि हम इसके घातक प्रभावोंके आदी हो गये हैं।

भारतमें हममें से बहुतेरे लोग रक्तपात होते देखकर काँप उठते हैं। हममें से बहुतेरे गोवधको लेकर नाराज होते हैं, लेकिन धीरे-धीरे लगातार जो यन्त्रणा मनुष्यों और पशुओंको लोभके वश होकर दी जा रही है, उसपर हमारी दृष्टि ही नहीं जाती। तिल-तिल होनेवाली इस मौतके हम आदी गये हैं और इसको कुछ गिनते ही नहीं। युद्ध-विरोधी आन्दोलन सर्वथा उचित है। मैं उसकी सफलताकी कामना करता हूँ। लेकिन मैं अपने मनको कुरेदनेवाली यह आशंका व्यक्त किये बिना भी नहीं रह सकता कि यदि यह आन्दोलन समस्त बुराइयोंके मूल कारण— मनुष्यके लोभपर कुठाराघात नहीं करता तो वह असफल हो जायेगा।

क्या अमेरिका, इंग्लैंड और पश्चिमके अन्य महान राष्ट्र तथाकथित अधिक दुर्बल या असभ्य जातियोंका शोषण जारी रखते हुए भी उस शान्तिको हासिल करनेकी आशा कर सकते हैं जिसके लिए सारा संसार ललक रहा है ? या क्या अमेरिका आदि एक-दूसरेका शोषण और व्यावसायिक स्पर्धा जारी रखते हुए भी विश्वको शान्ति बनाये रखनेका आदेश देनेकी धृष्टता करेंगे?

जबतक भावना नहीं बदल जाती, बाह्य स्वरूप भी नहीं बदला जा सकता। बाह्य स्वरूप तो भीतरी भावनाकी अभिव्यक्ति मात्र है। ऊपरी तौरसे हम स्वरूप बदल सकनेमें शायद सफल हो जायें, लेकिन यदि भीतरी भावना अपरिवर्तित रहे तो वह परिवर्तन अवास्तविक— नाममात्रका ही होगा। पुती हुई शुभ्र दिखाई देनेवाली कब्र आखिरकार गल रहे मांस और अस्थियोंको ही ढांकती है।

पश्चिममें युद्धकी भावनाको निर्मूल करनेका जो महान प्रयत्न किया जा रहा है मेरा मंशा उसे महत्त्व न देने या कम महत्त्व देनेका कदापि नहीं है। मेरा मंशा तो एक ऐसे समानधर्मी सहकर्मीके नाते सतर्क रहनेकी सलाह देना-भर है, जो स्वयं भी अपने विनम्र ढंगसे इसी उद्देश्यकी प्राप्तिके लिए प्रयत्नशील हैं, भले ही उसका ढंग कुछ भिन्न है और क्षेत्र निस्सन्देह अपेक्षाकृत सीमित है। फिर भी यदि मेरा प्रयोग इस अपेक्षाकृत छोटे क्षेत्रमें सफलता प्राप्त करले और जो लोग व्यापक क्षेत्रमें काम कर रहे हैं यदि वे तबतक उतने सफल न हो पायें तो इससे और कुछ नहीं तो बड़े क्षेत्रमें वैसे ही प्रयोगके लिए रास्ता तो तैयार हो ही जाता है।

मैं जिस सीमित क्षेत्रमें काम कर रहा हूँ, उसमें मैंने देखा कि जबतक में स्त्री-पुरुषोंके दिलोंको नहीं छूता तबतक मैं कुछ नहीं कर सकता। मैं यह भी मानता हूँ कि जबतक घृणाकी भावना किसी-न-किसी रूपमें बनी रहती है, तबतक शान्ति स्थापित कर सकना, या शान्तिपूर्ण उपायों द्वारा अपनी स्वतन्त्रता प्राप्त कर सकना असम्भव है। यदि हम अंग्रेजोंसे घृणा करते हैं तो हम आपसमें एक-दूसरेसे भी प्रेम नहीं कर सकते। हम जापानियोंसे प्रेम और अंग्रेजोंसे घृणा नहीं कर सकते। हमें पूरी तरह प्रेमके नियमके अधीन होना होगा, या फिर उसे बिलकुल तिलांजलि देनी पड़ेगी।