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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तक नहीं गये हैं; किन्तु हम भी कबतक यहाँ पढ़ते रह सकते हैं? मैं अध्ययनके लिए जर्मनी जाना चाहता हूँ, किन्तु मेरी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि जर्मनी जा सकूँ। क्या आप मुझे बलिन विश्वविद्यालय या यूरोपके किसी अन्य विश्वविद्यालयमें भेज सकते हैं?

पत्र-लेखकने मुझे अपना पूरा नाम, अपनी संस्थाका नाम और अन्य उपलब्ध विवरण भेजा है। मैंने संस्थाका नाम और अन्य विवरण जानबूझकर नहीं दिया है, क्योंकि मुझे उसकी पर्याप्त जानकारी नहीं है और में किसी संस्थाका अध्ययन किये बिना उसकी निन्दामें भाग नहीं ले सकता। छात्र द्वारा की गई उसकी आम शिकायत को छाप देनेसे सार्वजनिक हेतु पर्याप्त रूप से पूरा हो जाता है और जिन संस्थाओं-पर यह शिकायत लागू होती हो, वे इसके आधारपर अपना आत्मनिरीक्षण कर सकती हैं और शिकायतके सभी कारणोंको हटा सकती हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि अनेक राष्ट्रीय संस्थाओंमें, जितनी अच्छी होनी चाहिए उतनी अच्छी स्थिति नहीं है। इन संस्थाओं के प्रमुख और अन्य अध्यापकोंने कांग्रेसके राष्ट्रीय कार्यक्रमकी प्रारम्भिक राष्ट्रीय संस्थाओंसे सम्बन्धित शर्तें पूरी नहीं की हैं। जो अध्यापक स्वयं अहिंसा या सत्य या असहयोगमें विश्वास नहीं करते वे अपने छात्रोंमें इनमें से किसी भी बातकी भावनाका संचार नहीं कर सकते। यदि वे अपने बच्चोंको सरकारी स्कूलोंमें भेजते हैं तो वे छात्रोंसे यह आशा नहीं कर सकते कि वे राष्ट्रीय संस्थाओंके सम्बन्धमें उत्साह दिखायेंगे। यदि वे स्वयं चरखा नहीं चलायेंगे या खादी नहीं पहनेंगे तो वे अपने छात्रोंमें चरखे या खद्दरके प्रति प्रेम पैदा करनेकी आशा भी नहीं कर सकते। यह कहनेकी जरूरत नहीं है कि इस पत्र-लेखकने अपनी संस्थाकी अवस्थाका जो विवरण दिया है, सभी राष्ट्रीय संस्थाएँ वैसी नहीं हैं। किन्तु इस पत्रके सिलसिलेमें जिस बात-पर मैं जोर देना चाहता हूँ वह यह है कि किसीको भी अपने त्यागपर दुःखी नहीं होना चाहिए। जिस त्यागपर दुःख किया जाता है उसकी पवित्रता चली जाती है और व्यक्ति प्रतिकूल परिस्थितिमें उससे विरत हो जाता है। मनुष्य उन बातोंको छोड़ता है जिनको वह हानिकर समझता है। इसलिए उन्हें छोड़ते हुए उसे सुख मिलना चाहिए। उनके स्थानमें जो विकल्प ग्रहण किया जाता है वह प्रभावकारी है या नहीं यह एक बिलकुल अलग बात है। यदि वह विकल्प प्रभावकारी हो तो निस्सन्देह वह एक अच्छी परिस्थिति है। किन्तु यदि वह प्रभावकारी न भी हो तो भी वही अच्छा है। कालान्तरमें वह उससे भी अच्छा विकल्प ढूंढ़नेका प्रयत्न करेगा; किन्तु जिस चीजको उसने पूरी तरह सोच-समझकर उसके हानिकारक रूपको अनुभव करके छोड़ा है वह निश्चय ही फिर उसे स्वीकार नहीं करेगा। बलिन विश्वविद्यालय या यूरोपके किसी दूसरे विश्वविद्यालयमें जानेकी लालसा असहयोगकी भावनाका द्योतक नहीं है। यह ऐसा ही है जैसे इंग्लैंडके बने कपड़ेकी जगह जापानका बना कपड़ा स्वीकार करना। हम इंग्लैंडका बना कपड़ा इसलिए नहीं छोड़ते कि वह इंग्लैंडका बना है, बल्कि इसलिए छोड़ते हैं कि उससे गरीबोंका पुश्तैनी धन्धा छूटता है और इसके कारण वे और भी गरीब होते चले जाते हैं।