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छात्र और असहयोग

आया तब रौलट अधिनियम सम्बन्धी आन्दोलनके दिनोंमें उन्होंने यह लिखा कि मुझे यदि फाँसीपर झलकर नहीं, तो कारागारमें भी अपने जीवनका अन्त करना पड़े; तब भी उन्हें अफसोस नहीं होगा। खुद उनमें इस प्रकारका त्यागकर सकनेकी पूरी-पूरी शक्ति मौजूद थी। यह तो उनकी अटल धारणा ही थी कि कोई भी आन्दोलन, उसके समर्थकोंके बलिदानके बिना सफल नहीं हुआ करता। अभी पिछले साल ही उन्होंने लिखा था कि दक्षिण आफ्रिका निवासी भारतवासियोंके पक्षमें अपने मित्र जनरल हर्टजोगसे उनकी खूब लिखा-पढ़ी चल रही है। उन्होंने मुझे यह भी लिखा था कि मैं जनरल हर्टजोगके प्रति कुपित न होंऊँ और उनसे जो आशा रखता हूँ, उसका मैं एक अन्दाजा उन्हें दूं। हिन्दुस्तानकी स्त्रियोंको इस अंग्रेज महिलाका उदाहरण याद रखना चाहिए। उन्होंने विवाह नहीं किया था। उनका जीवन स्फटिककी भाँति स्वच्छ था। उन्होंने अपनेको ईश्वरके प्रति समर्पित कर रखा था। स्वास्थ्य तो उनका बिलकुल ही गया बीता था, उनको लकवेकी बीमारी थी; परन्तु उनके उस दुर्बल और रोगग्रस्त शरीरमें एक ऐसी आत्मा दैदीप्यमान थी जो राजाओं और शहंशाहोंके ससैन्य बलको भी चुनौती दे सकती थी और चूंकि उनको केवल ईश्वरका भय था, वे किसी मनुष्यसे नहीं डरती थीं।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १५-७-१९२६

१४८. छात्र और असहयोग

मैं नीचे एक राष्ट्रीय महाविद्यालयके किसी छात्र द्वारा लिखी गई एक लम्बी चिट्ठीका सार दे रहा हूँ :

आप जानते हैं कि सन् १९२०में समस्त भारतमें बहुतसे छात्रोंने सरकार द्वारा नियन्त्रित संस्थाओंको छोड़ दिया था। उस समय अनेक राष्ट्रीय संस्थाएँ खोली गई थीं। इनमें कुछ बन्द हो गई हैं। एक संस्था, जिसे मैं जानता हूँ, बड़ी खराब हालतमें है। कहा जा सकता है कि यह राष्ट्रीय नियन्त्रणमें विदेशी संस्था ही है, अन्तर इतना ही है कि इसमें अनुशासन भी नहीं है। हमारे कई अध्यापक यह भी नहीं जानते कि खादी और विदेशी मिलके बने देशी कपड़ेमें क्या अन्तर है। वे साहबी पोशाकमें रहते हैं और यद्यपि स्वयं विदेशी कपड़े पहनते हैं; किन्तु फिर भी हमसे स्वदेशीकी बात करते नहीं सकुचाते। उनको देखकर उस शराबीकी याद आती है जो दूसरोंको शराब छोड़नेकी सलाह देता है। वे अपने पुत्रों और अन्य आत्मीयोंको तो सरकार द्वारा नियन्त्रित विद्यालयों या महाविद्यालयोंमें भेजते हैं, किन्तु दूसरोंसे राष्ट्रीय संस्थाओंके महत्त्वकी और त्यागभावकी बात करते हैं। वस्तुतः हम लोगोंके बीच प्रेमभावका अभाव ही है। इस स्थितिमें यदि बहुतसे छात्र सरकारी संस्थाओं में चले गये हों तो क्या आप इसमें आश्चर्य मानेंगे? हममें से कुछ छात्र अभी