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१४३. सन्देश : 'सर्चलाइट' को

[ १४ जुलाई, १९२६ या उससे पूर्व ][१]

यदि मैं मौजूदा असन्तोषपर सर्चलाइट फेकूं और इस [ असन्तोष ] का कोई उपचार जानना चाहूँ तो मुझे चरखा ही मिलता है। जो लोग गम्भीरतापूर्वक इसे अपनाते हैं, वे देखेंगे कि उनके मनोविकार इससे शान्त होते हैं और वे स्वराज्यकी इमारत और ऊँची खड़ी करनेमें ठोस योग भी दे रहे हैं।

मो० क० गांधी

[ अंग्रेजीसे ]
सर्चलाइट, वार्षिक विशेषांक, १९२६

१४४. एक पत्र[२]

आश्रम
साबरमती
१४ जुलाई, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला। मुझे इस बातका अन्दाज नहीं है कि आप क्या संगठित करना चाहते हैं। क्या आप अपने क्षेत्रकी उस गरीब जनता के लिए, जिसके पास साल भरके लिये पूरा काम नहीं रहता और जिसके पास काफी अवकाश बच रहता है, कताई के कामको कोई योजनाके वारेमें सोच रहे हैं? या हो सकता है कि आपका विचार मध्यमवर्ग में खादीको लोकप्रिय बनाने और स्वैच्छिक कताई द्वारा खादीको सस्ती कराने के लिए कातनेवालोंको एक स्वैच्छिक संस्था संगठित करनेका हो या फिर आप ये दोनों ही काम साथ-साथ करना चाह रहे हों। तब फिर चरखोंकी व्यवस्थाके अलावा आप यह भी चाहेंगे कि वे जब कभी बिगड़ जायें तो उन्हें ठीक करनेकी सुविधा हो। आपको पूनियोंकी जरूरत होगी और इसके लिए धुनकरोंकी सहायता भी अपेक्षित होगी। यदि आपके पासके क्षेत्रमें कपास पैदा होती हो तो उस अवस्थामें आप रुई ओटने की अपनी अलग व्यवस्था करना चाहेंगे। इसके लिए आपको हाथ-ओटनी-की जरूरत होगी। एक धुनिया दस कतैयोंको प्रति कतैया १०० तोला रुई दे

  1. सर्चलाइटका यह वार्षिक विशेषांक १४-७-१९२६ को छपा था।
  2. सम्भव है कि यह पत्र बलरामपुरम आश्रमके प्रबन्धकको लिखा गया हो। देखिए अगले शीर्षककी पाद टिप्पणी २