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१३७. एक पत्र[१]

११ जुलाई, १९२६

आपके पत्र तथा समाचारपत्रकी कतरनोंके लिए धन्यवाद। निश्चय ही आपने सामान्य क्रम उलट दिया है। लोग पहले कुछ अच्छा काम करते हैं और बादमें कुछ अच्छा लेखन कार्य करते हैं। लगता है कि आप पहले एक अच्छे लेखक बनना चाहते हैं और उसके बाद एक अच्छे कार्यकर्ता। परीक्षण सचमुच दिलचस्प रहेगा।

मो० क० गां०

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १९९३०) से।

१३८. पत्र : धरमशी भानजी खोजाको

आश्रम
साबरमती
११ जुलाई, १९२६

भाईश्री ५ धरमशी भानजी,

आपके बहुत सावधानीसे पूछे गये प्रश्नोंका[२] उत्तर मैं आज दे पा रहा हूँ। मैं इतने सारे प्रश्नोंकी चर्चा 'नवजीवन' में करना नहीं चाहता। आपके प्रश्न मुझे बहुत अच्छे लगे हैं। मैं उनका उत्तर क्रमशः दे रहा हूँ।

जो मनुष्य सत्यकी खातिर आत्मोत्सर्ग करनेके लिए तैयार होता है वह शरीर-रक्षाकी झंझटमें नहीं पड़ता, अपितु शरीरकी रक्षा सत्यकी अनुभूतिके लिए जिस हदतक आवश्यक हो उसी हदतक करता है। नैतिक उद्देश्यसे किये गये उपवासका शारीरिक परिणाम जाननेके लिए अपना वजन लेते रहनेमें मैं कोई दोष नहीं देखता; लेकिन इसमें कोई सन्देह नहीं कि ऐसा करते हुए मोह हो सकता है। मैं ऐसा करते हुए मोहके वश हुआ था अथवा नहीं, यह तो दैव ही जाने। मैंने यह क्षेत्र-संन्यास केवल आरोग्य-लाभके हेतुसे ही लिया है। ऐसे हेतुसे स्वीकार की गई क्षेत्र-मर्यादाको क्षेत्र संन्यास कहना भूल हो तो हम उसे क्षेत्र मर्यादा ही कहें। इस मर्यादामें नीतिका विचार नहीं किया गया है। इसलिए इसमें स्थूल अथवा सूक्ष्म भ्रमकी गुंजाइश नहीं।

  1. यह पत्र श्रीलंकामें किसको लिखा गया था यह ज्ञात नहीं है।
  2. ६० भा० खोजाने २१ मई, १९२६ को गांधीजीको लिखे अपने पत्रमें ये प्रश्न पूछे थे।