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१३४. पत्र : मु० रा० जयकरको

आश्रम
साबरमती
१० जुलाई, १९२६

प्रिय श्री जयकर,

कुछ दिन पहले श्री भरुचा यहाँ आये थे और आपके बारेमें बातचीत हुई थी। जब उन्होंने बताया कि आपको कुछ ऐसा लगा है कि मैं आपको कोई महत्व नहीं देता और हमेशा आपके प्रति उदासीन रहता हूँ, तो मुझे आश्चर्य हुआ। उन्होंने मुझे आपसे इस बातका उल्लेख करनेकी अनुमति भी दे दी थी। मुझे तो ऐसा कोई मौका याद नहीं आता जब मैं या तो आपके या आपके कामके प्रति उदासीन रहा होऊ या मैंने उसपर ध्यान न दिया हो। इसके विपरीत जबसे मुझे आपको जाननेका सौभाग्य मिला, मैंने आपकी महान योग्यता, खरे चरित्र और आपकी देशभक्ति तथा सज्जनताको सराहा है। मेरी दृष्टिमें आपका जो दर्जा रहा है उसमें हमारे मतभेदोंके कारण कोई फर्क नहीं पड़ा। इसलिए अपने मनसे इस तरहकी हर भावना निकाल दीजिये— जैसी कि श्री भरुचा बताते हैं कि आपने उनसे व्यक्त की थी। मैं यह पत्र श्री भरुचाके जानेके बाद तुरन्त ही लिखना चाहता था परन्तु मेरी व्यस्तताके कारण यह काम रुका रहा।

आशा है, आप स्वस्थ होंगे। समाचारपत्रोंमें आपके बारेमें समाचार है कि आपको न्यायाधीशका पद ग्रहण करनेका प्रस्ताव था और आपने इन्कार कर दिया। यदि यह सच है तो यही तो मैं···![१]

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १९६६३) की फोटो-नकलसे।

१३५. पत्र : गोपालदास मकनदासको

आश्रम
१० जुलाई, १९२६

आपका पत्र मिला। मुझे तो लगता है कि मूर्तिकी प्रतिष्ठा किसी दूसरे स्थानपर की जानी चाहिए। उत्तर देनेमें विलम्ब हुआ, इसके लिए क्षमा करें।

मोहनदासके वन्देमातरम्

गुजराती पत्र (एस० एन० १०९१४) की माइक्रोफिल्मसे।

  1. इसके बादका अंश उपलब्ध नहीं हैं।