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१२९. पत्र : कान्तिलालको

आश्रम
साबरमती
शुक्रवार, ९ जुलाई, १९२६

भाई कान्तिलाल,

तुम्हारे तीन पत्र मिले। आखिरी पत्रसे मालूम हुआ कि अबतक तुम्हारे यहाँ खूब पानी बरस चुका है। कहा जा सकता है कि यहाँ भी इस ॠतुका पहला पानी भरपूर गिर गया है और उससे दो बाढ़े भी आ गईं। तुम्हारे सम्मुख जो धर्म-संकट है उसके बारेमें मेरा मत तो यह है कि अभी तुम्हारी माँको जो दुःख हो रहा है, उसे तुम्हें अनिवार्य समझकर सहन कर लेना चाहिए। मेरा अपना अनुभव यह है कि जब कभी किसी अच्छे कार्य के सम्बन्धमें माता-पिता विरोध करते हैं तब यदि सन्तान अपने कार्यके बारेमें अत्यन्त दृढ़ और विनयी हो तो माँ-बाप विरोध करना बंद कर देते हैं। उनके विरोध और दुखमें वृद्धि तभी होती है जब संतान अपने कार्यके बारेमें अनिश्चित हो और माँ-बापका विश्वास यह हो कि अन्ततः प्रेमवश उनकी बात मान ली जायेगी। इसलिए यदि तुम्हें अपने कार्यके औचित्यके बारेमें तनिक भी शंका न हो और अपनी शक्तिमें भी उतनी ही आस्था हो तो तुम्हें अपनी माँको अपना निश्चय बता देना चाहिए और निश्चिन्त हो जाना चाहिए। यदि कुछ और पूछना हो तो पूछना।

आँकड़े आदि प्रकाशित करनेसे खादीकी प्रगति हो जायेगी, मैं यह विश्वास ही नहीं करता। मैं यह भी विश्वास नहीं करता कि गारियाधार-जैसी किफायत हर जगह की जा सकती है। लेकिन गारियाधारका काम जान लेने योग्य तो है। गारिया- धारमें मैंने दो विशेषताएँ देखी हैं। एक तो कातने, बुनने और पींजनेवाले सभी शम्भुशंकरकी देखरेखमें काम करते हैं और दूसरी शम्भुशंकर स्वयं इन कारीगरों और उनके साथियोंको अच्छी तरह जानते हैं और उन्हें इन सबका प्रेम भी प्राप्त है। इसके लिए वे अपना बहुत-सा काम उनसे हाथों-हाथ करवा लेते हैं। यह सब अन्य सभी लोग नहीं कर सकते। हाँ, इससे वे जितना सार ग्रहण कर सकें उतना कर लें। अमरेली केन्द्र के बारेमें इतना काफी है कि वहाँ टीकाके लिए तनिक भी कारण न दिया जाये। मैं अज्ञानवश अथवा द्वेषभावसे की गई टीकाका सामना करना आसान कार्य मानता हूँ। वहाँ अभी हालमें जो खादी बिकी है वह अब्बास साहबके वहाँ जानेके कारण ही बिकी है, यह बात मैं अच्छी तरह जानता हूँ और समझता हूँ। जब लोग धर्म समझकर खादी खरीदने लगेंगे तब खादीके प्रसारमें तनिक भी समय न लगेगा। अभी तो इतना ही पर्याप्त है कि हम पूरी कार्यदक्षतासे और शक्तिभर