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१२०. पत्र : कृष्णदासको

आश्रम
साबरमती
८ जुलाई, १९२६

प्रिय कृष्णदास,

तुम्हारा पत्र पढ़कर मन दुःखी हो गया। आशा है कि अभी तुम जिन परेशानियोंसे घिरे हों, वे शीघ्र ही दूर हो जायेंगी; गुरुजी शीघ्र ही प्रकृतिस्थ हो जायेंगे और तुम्हारे पिता फिर अपनी खोई हुई शक्ति प्राप्त कर लेंगे। लेकिन मैं इसे बिलकुल ठीक मानता हूँ कि फिलहाल तुम्हें उन लोगोंके नजदीक ही रहना चाहिए जो बीमार हैं।

मैं चाहता हूँ कि तुम आर्थिक सहायता मांगनेके औचित्यके प्रश्नपर न जाओ। आखिर मैं ही तो ट्रस्टकी रकम बाँट रहा हूँ; और मैंने खूब सोच-विचार किये बिना राशियाँ नहीं बाँटी हैं। मैं जो भी मदद तुम्हें भेज पाऊँगा, उसका औचित्य ईश्वर और मानवके समक्ष सिद्ध कर दूंगा। इसलिए तुम्हें जितनी भी जरूरत पड़े मुझे बताने में हिचकना मत। मैं जानता हूँ कि गुरुजी मेरी इस बातका समर्थन करेंगे।

यदि कलकत्ताकी जलवायु उन्हें ज्यादा माफिक पड़ती हो तो मैं निश्चय ही उनको कलकत्ता जानेका सुझाव दूंगा। यदि स्वास्थ्य-सुधारके लिए उनका कलकत्ता रहना जरूरी ही हो तो उनको कलकत्ता में भी शान्ति मिल सकती है। यदि वे कलकत्ताके रहनेवाले न होते और वहाँ बरसों रहे न होते तो बात शायद दूसरी होती। लेकिन ज्यादा ठीक तो वे ही समझते हैं कि उन्हें कहाँ रहना चाहिए। मुझे अभीतक ऐसे किसी स्थानकी जानकारी नहीं जिसके लिए भरोसेसे कहा जाये कि वहां सिर्फ मुर्दार पशुके चमड़ेसे बने जूते ही मिलते हैं। हमारा कारखाना जब खुलेगा तो वह इस किस्मका पहला कारखाना होगा। मैं इसमें शीघ्रता करानेका प्रयत्न कर रहा हूँ, लेकिन माहिर कारीगरोंकी कमीसे मैं बड़ा लाचार हूँ।

जिन जर्मन बहनने १८ महीने पहले पत्र लिखा था, वे अब यहीं हैं और यहाँकी जलवायुकी लगभग अभ्यस्त हो गई हैं। वह बहुत सीधी-सादी और नेकदिल हैं। वह हर किसीसे मित्रता कर लेती हैं। श्री स्टेनली जोन्स[१] भी यहाँ एक सप्ताह के लिए ठहरे हैं। इस तरह आश्रम काफी भरा-पूरा है। कुछ नये लोग और हैं जिन्हें तुम नहीं जानते।

३१-८
  1. ई० स्टेनली जोन्स, अमेरिको मिशनरी, द क्राइस्ट ऑफ द इंडियन रोड, आदिके लेखक।