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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कितने छाया-लोकोंने घेर कर रखा है,' जिसमें डूबकर हरएक अपनेको और अपने कर्त्तव्यको भूल सकता है।

यह बात कभी भुलाई नहीं जानी चाहिए कि इन सब दुष्परिणामोंका बस एक मात्र कारण लोगोंका यह विचार ही है कि 'केवल विषयभोगके लिए विषयभोग एक मानवीय आवश्यकता है और इसके बिना पुरुष या स्त्री किसीका भी पूर्ण विकास नहीं हो सकता।' यह विचार जैसे ही मनुष्यके मनपर सवार हुआ, वह जिसको अबतक गलत मानता था उसे सही समझने लग जाता है और फिर अपनी पाशविक इच्छाओंकी उत्तेजना और उसकी पूर्तिके लिए नई-नई तरकीबोंकी उसकी खोज बढ़ती ही जाती है, उनका अन्त हो नहीं आता।

आगे चलकर ब्यूरो यह साबित करता है कि किस प्रकार दैनिक-पत्र, मासिक पत्रिकाएँ, पुस्तिकाएँ, उपन्यास, चित्र और रंगमंच इत्यादि दिन-ब-दिन लोगोंकी इस नीच प्रवृत्तिके पूरा करनेके लिए ही प्रयुक्त किये जा रहे हैं।

अभीतक तो ब्यूरोने केवल अविवाहित लोगोंकी दुर्दशा दिखाई है। आगे चलकर वह विवाहित लोगोंके भ्रष्टाचारका दिग्दर्शन कराता है। वह कहता है:

अमीरों, किसानों और औसत दर्जेके लोगोंमें विवाह अधिकतर दिखावेके लिए या लोलुपताके कारण होते हैं। विवाह कोई अच्छी नौकरी पाने या दो जायदादोंको, विशेषकर दो जमींदारियोंको एक करनेके लिए, चले आ रहे सम्बन्धको कानूनी रूप देने, उत्पन्न सन्तानको वैध बनाने, बुढ़ापेमें या बीमारीमें देखभाल के लिए एक साथी पाने आदिके उद्देश्यसे किये जाते हैं। लोग अपने पापपूर्ण जीवनसे थककर और उसकी जगह दूसरे प्रकारके यौन-जीवनको बितानके लिए भी विवाह कर लेते हैं।

आगे चलकर ब्यूरो तथ्य और आँकड़े देकर यह दिखाता है कि ऐसे विवाहों से उच्छृंखलता कम होनेके बजाय और भी बढ़ जाती है। इस पतनमें वे तथाकथित वैज्ञानिक साधन और भी अधिक सहायता करते हैं जो व्यभिचारको तो नहीं, सन्तान उत्पन्न न होने देकर उसके परिणामको रोक देते हैं। मैं उन दुःखदायी अनुच्छेदोंको उद्धृत नहीं करूंगा जिसमें गत २० वर्षके अन्दर परस्त्री-गमनकी वृद्धि अथवा कचहरियों द्वारा स्वीकृत तलाकोंकी संख्या के दुगनी हो जाने जैसी बातोंका वर्णन आया है। पुरुष और स्त्रीके नैतिक स्तरोंमें समानताके सिद्धान्तानुसार स्त्रियोंको विषयभोग करनेकी स्वतन्त्रता दिये जाने के सम्बन्धमें भी मैं एक-दो शब्द ही कहूँगा। गर्भ स्थिर न होने देने अथवा गर्भपात करा देनेकी क्रियाओंमें जो कमाल हासिल कर लिया गया है उससे पुरुष अथवा स्त्री किसीको भी संयम करनेकी आवश्यकता ही नहीं रही है। तब फिर यदि लोग विवाहके नामपर हँसें तो इसमें अचम्भा ही क्या है? ब्यूरो एक जनप्रिय लेखकका यह वाक्य उद्धृत करता है:

मेरे विचारमें विवाहकी प्रथा एक बड़ी ही जंगली और क्रूर प्रथा है। यदि कभी मनुष्यजाति बुद्धि और न्यायको दिशामें प्रगति करेगी तो वह इस