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मनुष्यतासे पहले पशुता

बरताव करते हैं। डाक्टर साहब भी यह तो मानते हैं कि यद्यपि हमारे पुरखा जंगली थे परन्तु कमसे-कम हम सभ्य लोग तो पशु सृष्टिसे भिन्न ही रखे जायेंगे। पशुका पाशविक व्यवहार करना स्वाभाविक है परन्तु हम तो इस विशेषणको अवश्य पसन्द नहीं करेंगे ।

डाक्टर साहब क्षमा मांगकर बहुत हिचकते हुए मुझसे कहते हैं कि 'यदि मैं बन्दरसे अपना दूरका सम्बन्ध मान लूँ तो इससे मेरे नीतिशास्त्रपर क्या असर पड़ता है?' मैं जिस नीतिपर चलता हूँ वह नीति वानर ही नहीं, घोड़ा और भेड़, शेर, चीता, साँप और बिच्छू सबसे नाता और सम्बन्ध रखनेकी मुझे इजाजत ही नहीं देती बल्कि वह मुझसे ऐसी अपेक्षा भी करती है— मेरे ये नातेदार मुझे अपना सम्बन्धी समझें चाहे, न समझें। नीतिके जिन कठिन सिद्धान्तोंको में स्वयं मानता हूँ तथा जिनको मानना मैं हर व्यक्तिका कर्त्तव्य समझता हूँ उनके अनुसार एकतरफा नातेदारी निबाहनेका यह अनिवार्य धर्म है। यही सब हमारा कर्त्तव्य इसीलिए है कि केवल मनुष्य ही परमात्माके स्वरूपका बनाया गया है। हममें से बहुतसे अपने इस स्वरूपको चाहे न पहचानें तो भी इससे इसके अतिरिक्त और कोई अन्तर नहीं पड़ता कि तब हम उस लाभको उठाने में समर्थ नहीं हो सकेंगे जो हमें अपना वास्तविक स्वरूप पहचानने से हो सकता है। जिस प्रकार भेड़ोंमें पला हुआ शेर यदि भूलकर अपना स्वरूप न पहचाने तो उसे अपने शेर होनेका लाभ भी नहीं मिल सकता। किन्तु वह है तो शेर ही और जिस क्षण वह अपना स्वरूप पहचान लेता है उसी क्षण वह भेड़ोंका राजा हो जाता है। कोई भेड़ कितना भी प्रयत्न करे वह शेर कभी नहीं हो सकती। यह साबित करनेके लिए कि मनुष्य परमात्माके स्वरूपके अनुसार बना है इस बातकी आवश्यकता नहीं है कि हर मनुष्यमें हम परमात्माका स्वरूप दिखा दें। यदि हम एकमें भी परमात्माका स्वरूप दिखा दें तो हमारी बात सिद्ध हो जाती है। और क्या इस बातसे कोई इनकार करेगा कि जो-जो धार्मिक गुरु व नेता हुए हैं उनमें परमात्माका स्वरूप नहीं था?

परन्तु हाँ, हमारे डाक्टर साहब तो यह कहते हैं कि मनुष्यके लिए परमात्माका ज्ञान अथवा परमात्माकी प्राप्ति अस्वाभाविक है और इसीलिए वह कहते हैं कि मनुष्य ने अपने स्वरूपके अनुसार परमात्माको बनाया है। इसके उत्तरमें मैं इतना ही कह सकता हूँ कि अभीतक संसारके परिव्राजकोंकी साक्षी इसके विरुद्ध है। प्रतिदिन यही बात अधिकाधिक स्पष्ट होती जा रही है कि चाहे जितने असंस्कृत ढंगकी क्यों न हो, ईश्वराराधना ही मनुष्यको पशुसे अलग करती है। इसी गुणके कारण वह परमात्माकी सृष्टिमें राज्य करता है। करोड़ों मनुष्योंके मन्दिर, गिरजा और मस्जिद में कभी कदम न रखने से इसमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। ईश्वराराधनाके लिए वहाँ जाना न स्वाभाविक ही है, न आवश्यक। भूत-प्रेत और पत्थर पूजनेवाले भी अपनेसे महान् किसी शक्ति ही की पूजा करते हैं। आराधनाका यह ढंग बेढंगा और बुरा होनेपर भी है ईश्वराराधना ही। मिट्टीसे ढँका हुआ सोना, सोना ही है। तपकर और साफ होकर वह चमक उठता है और फिर अज्ञानी भी उसे सोनेके रूपमें पहचान लेता