पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 31.pdf/१४२

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०६
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

आपने इंग्लैंडके मजदूरोंके प्रति कितनी बड़ी हिंसा की होती? किसीका सर लट्ठसे फोड़ डालना हो तो हिंसा नहीं है; उसको भूखों मारना भी तो हिंसा ही है। आपकी 'आत्मशक्ति' अथवा 'प्रेमशक्ति' केवल मनके लड्डू हैं। अहिंसा सभ्यताका तकाजा है; मनुष्यको प्रकृति नहीं।

मैंने डाक्टर साहबके पत्रको संक्षिप्त कर लिया है। जिस पूर्ण विश्वाससे उन्होंने लिखा है, उसे देखकर मेरे तो होश उड़े जा रहे हैं। परन्तु हमारे डाक्टर महोदय जिन्होंने विलायतमें शिक्षा पाई है और जो लगता है बहुत दिनोंसे डाक्टरी कर रहे हैं वही बातें कहते हैं जो कि प्रायः पढ़े-लिखे लोग सोचते और कहा करते हैं। फिर भी उनकी बातें मेरी समझ में नहीं आतीं। आइये! उनके तर्कको जरा कसोटीपर कसें। वह कहते हैं कि जनता अहिंसा नहीं सीख सकती। हम देखते हैं कि संसारके रोजके सारे कार्य लोग इस तरह मिलजुल कर करते हैं मानो यह उनका सहज स्वभाव हो। अगर मनुष्य प्रकृतिसे ही हिंसात्मक हो तो संसार क्षणभरमें ही नष्ट हो जाये। पुलिस या और किसी दबावके बिना ही लोग शान्तिपूर्वक रहते हैं। जब बुरे लोग जनतामें आकर अस्वाभाविक विचार फैलाकर उसका दिमाग खराब कर देते हैं तभी जनता हिंसाकी तरफ मुड़ती है, अन्यथा नहीं। परन्तु फिर भी सारी हिंसा कर-करा कर लोग हिंसावृत्तिको भूल जाते हैं और अपने प्राकृतिक शान्त भावसे काममें लग जाते हैं। जबतक बुरे लोग उन्हें उकसाते रहते हैं तभीतक उनमें हिंसाका भाव जाग्रत रहता है।

अभीतक तो हमने यही सीखा है कि किसी प्राणीके जातिभेदका आधार दूसरोंसे भिन्न केवल उसके गुणोंपर रहता है। इसलिए यदि हम यह कहें कि घोड़ा पहले 'पशु' है और फिर 'घोड़ा' तो यह ठीक न होगा। यह तो ठीक है कि घोड़ेमें और अन्य पशुओंमें कुछ समानता है; परन्तु घोड़ा अपने 'घोड़ेपन' को छोड़कर पशु भी नहीं रह सकता। अपनी विशेषता छूट जानेपर वह अपनी पशुपनकी सामान्य अवस्थाको भी स्थिर नहीं रख सकता। इसी प्रकार यदि मनुष्य अपनी मानवताको छोड़ दे, पूंछ लगा ले, चारों हाथ-पैरोंसे चलने लग जाये और अपने हाथों और अपनी बुद्धिको प्रयोग न लाये तो वह केवल मनुष्य कहलाने के अधिकारसे ही नहीं पशु कहलानेके अधिकारसे भी वंचित हो जायेगा । बैल, गाय, भेड़ या बकरी, किसी भी प्राणि-समुदायमें वह सम्मिलित नहीं हो सकेगा। इसलिए मैं डाक्टर साहबसे कहता हूँ कि मनुष्य उसी समयतक पशु कहला सकता है जबतक उसमें मनुष्यके लक्षण हैं। आस्ट्रेलियाके जंगली लोगोंका उदाहरण भी यहाँ ठीक नहीं बैठता। पशु, पशु ही है; और जंगली होनेपर भी मनुष्य, मनुष्य है। जंगली मनुष्य में उन सब सद्गुणों के विकासको सम्भावना है जो मनुष्य में होते हैं परन्तु पशुमें उन गुणोंका विकास सम्भव नहीं है। और फिर आस्ट्रेलियाके जंगलियोंके उदाहरणकी आवश्यकता ही क्या है। इस बातसे कोई भी असहमत नहीं होगा कि हमारे भारतीय पूर्वज स्वयं आस्ट्रेलियाके जंगलियोंसे कुछ अधिक अच्छे नहीं थे। मैं डाक्टर साहबकी यह बात अक्षरशः मान लेता हूँ कि सभ्य पुकारे जानेवाले राष्ट्रोंमें भी अभीतक लोग जंगलियोंकी तरह ही