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११६. मनुष्यतासे पहले पशुता

२४ जूनके 'यंग इंडिया' में 'स्वाभाविक किसे कहेंगे?' शीर्षकसे जो लेख[१] प्रकाशित हुआ है, उसके सम्बन्धमें एक डाक्टर महोदय लिखते हैं :

भीड़का रूप धारण करनेपर ही लोगोंकी हिंसात्मक प्रवृत्ति उमड़ उठती है। ऐसी अवस्थामें हिंसाका उपयोग बन्द करना एक तो लगभग असम्भव है, दूसरे में समझता हूँ कि इसे रोकनेका प्रयत्न पूरी तरहसे वांछनीय भी नहीं है। निश्चय ही यह मनुष्यको प्रकृतिके विरुद्ध है। मनुष्य पहले तो पशु ही है, मनुष्यता उसमें बादमें आती है। आस्ट्रेलिया वासियोंके जंगली पूर्वजोंका ही उदाहरण लीजिए। कला, साहित्य, इत्यादिसे उनका कोई सम्बन्ध नहीं था। आदमी प्रारम्भमें जानवरोंको मारकर खाता और संकेतोंसे बातचीत करता था। हममें अभीतक पशुता भरी है; हमने नैतिक आचरणकी तो केवल एक झीनी-सी चदरिया ओढ़-भर रखी है। परमात्माकी खोज और प्राप्ति आदमी के लिए कोई स्वाभाविक बात नहीं है। उसके लिए परमात्माकी आराधना तो और भी कम स्वाभाविक है। यदि कोई व्यक्ति ऐसे वातावरणमें पाला जाये कि धर्म, ज्ञान या ईश्वर विषयक किसी बातकी भनक उसके कानमें न पड़े तो ईश्वरकी आराधनाका ध्यान आना उसके लिए अस्वाभाविक ही होगा। संसारमें लाखों और करोड़ों शिक्षित मनुष्य कभी किसी मन्दिर, गिरजा या मस्जिदमें कदमतक नहीं रखते। ईश्वराराधना तो एक डाली हुई आदत ही होती है। बुराई, भलाई, नीति-अनीतिका परमात्मासे कोई सम्बन्ध नहीं है। नीतिकी आवश्यकता तो समाज और संगठित जीवनके लिए पड़ती है; उमंगमें आकर परमात्मा थोड़े ही नीतिसे रहनेकी आज्ञा भेज देता है। परमात्माने मनुष्यको नहीं बनाया। मनुष्यने परमात्माको बनाया है। यदि आप अपनेको बन्दरका वंशज मान लें तो इससे आपके नीतिशास्त्रपर क्या असर पड़ता है। खाना-पीना और विषय-भोग करना तो मनुष्यके लिए बिलकुल स्वाभाविक ही है। हाँ, इन सबकी सीमा अवश्य है परन्तु वह सब सीमाएँ कुछ शरीर-रक्षा और स्वास्थ्य के कारण और कुछ रीति-रस्मके कारण रूढ़ हो गई हैं। विषय-भोगसे बिलकुल मुँह फेर लेनेका उपदेश कैसे दिया जा सकता है? आप यह क्यों नहीं सोचते कि विषय-भोगसे हमारा मन तभी विमुख हो सकता है जब हमारी इच्छाएँ पूरी तरह तृप्त हो जायें। आप कहते हैं कि मनुष्य प्रकृतिसे अहिंसात्मक है, हिंसात्मक नहीं। परन्तु यदि आपका ब्रिटिश मालका बहिष्कार ही सफल हो जाता तो

  1. देखिए खण्ड ३०, पृष्ठ ६१५-१७।