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१०८. सन्देश[१]

आश्रम
साबरमती
७ जुलाई, १९२६

मानव जातिके कल्याण में भारतका सबसे बड़ा योगदान यही हो सकता है कि वह शान्तिपूर्ण और सत्यनिष्ठ साधनोंसे स्वतन्त्रता प्राप्त कर ले। ऐसा कभी हो पायेगा या नहीं, यह कोई नहीं कह सकता। सचमुच ऊपरसे तो यही दिखता है कि ऐसा विश्वास फलित नहीं होगा। परन्तु मानव जातिके सुन्दर भविष्यमें मेरी आस्था इतनी गहरी है कि मेरे मनमें इस विश्वासके अतिरिक्त कोई अन्य विश्वास जमता ही नहीं कि भारत अन्य किसी भी साधनसे नहीं, केवल शान्तिपूर्ण और सत्यनिष्ठ साधनोंसे ही स्वतन्त्रता प्राप्त करेगा। इसलिए मेरी तरह ही विश्वास करनेवाले सभी लोगोंको इस परम उत्कर्षतक पहुँचने में भारतकी सहायता करनी चाहिए।

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १९६५६ ए) की फोटो-नकलसे।

१०९. पत्र : नरगिस कैप्टनको[२]

आश्रम
साबरमती
७ जुलाई, १९२६

तुम्हारा लम्बा पत्र मिला। अदन छोड़ने के बारह घंटे बाद जहाजपर जिस नवयुवकसे तुम्हारी मुलाकात हुई उसकी तुमने जो आलोचना की है, वह सही है किन्तु दुःखजनक है। अनेक शिक्षित भारतीय गोरक्षाके लिए जो इतना चीखते चिल्लाते हैं, वह झूठ है। लेकिन फिर भी वे तो हिन्दू जातिके अपार सागरमें एक बूंदके समान ही हैं और जहाँ एक ओर ये चन्द गोमांस-भक्षी लोग हैं वहाँ दूसरी ओर ऐसे करोड़ों लोग हैं जो मर जायेंगे; किन्तु गोमांसका स्पर्श भी न करेंगे। हमें उनके इस संयमकी कद्र करनी चाहिए क्योंकि हमारा उत्थान हमारे इस आत्मसंयमपर ही निर्भर है।

बेचारा यशवन्तप्रसाद अब भी बीमार है। उसे अभीतक पेटके कृमियोंसे पूरी तरह छुटकारा नहीं मिला। वह भावनगरमें अपने हकीमका ही इलाज करा रहा है। जमना बहन भी वहीं है। मीरा बिलकुल ठीक चल रही है। और अब वह जर्मन

  1. यह सन्देश किसको भेजा गया था यह ज्ञात नहीं है।
  2. २. दादाभाई नौरोजीकी पौत्री।