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पत्र: ५० बा० कालेलकरको

मैंने प्रार्थनाके बारेमें आपका मत पहले ही पढ़ लिया था, लेकिन मैंने आपको उसका उत्तर नहीं दिया था। समस्त विचारोंपर चर्चा की ही गई थी इसलिए मैंने समझा था कि आप इससे मेरे विचार जान गये होंगे। चर्चा सार्वजनिक रूपसे की गई थी और महादेवसे विशेष रूपसे अलग भी की गई थी। यदि आपके विचारोंसे सिद्धान्त-भेद होता तो मैं आपसे उसपर अवश्य विवाद करता।

आश्रमकी शालाके आदर्शके बारेमें आपके और मेरे विचारोंमें भिन्नता है, ऐसा मैं नहीं मानता। आप मानते हैं, उसका कारण यह है कि मैं अनेकान्तवादी हूँ, इस बातको आप पूरी तरह नहीं समझ सके हैं। मेरा दृढ़ विश्वास है कि अभी हम बाहरसे विद्यार्थी लेनेके योग्य नहीं हैं और हम नित्य नये प्रयोग करते जा रहे हैं। प्रयोग करना अभीष्ट है। लेकिन उनमें हम बाहरके लोगोंको वे चाहें तो भी, शामिल नहीं कर सकते। सौभाग्यकी बात तो यह है कि बाहरके लोग झट शामिल हो जायें, ऐसे भोले नहीं हैं। संसारके सारे लोग प्रचलित रूढ़िके भक्त होकर व्यवहार करते हैं; और यही ठीक भी है। हम या तो इतने ज्यादा आगे हैं या इतने पीछे हैं कि केवल थोड़ेसे ही लोग हमारा साथ दे पाते हैं। मेरे कहनेका तात्पर्य यह है कि हमारे पास शिक्षाके लिए जितना विस्तृत क्षेत्र है उतना विस्तृत क्षेत्र हिन्दुस्तानमें अन्यत्र कहीं नहीं है, क्योंकि हम विद्यार्थियोंको और उनके माता-पिताओंको साथ लेकर काम करते हैं। ऐसा हो सकता है कि हम इस क्षेत्रको सँभाल न सकें; लेकिन मैं जो कहत हूँ, सत्य तो वहीं है। यदि बाहरके लोग आश्रम की शालाकी तुलना अम्बालालभाई के स्कूलसे करें, तो इससे क्या होता है? हमारा दिल जो गवाही देता है, आखिर तो सत्य वही होता है । हम तो किसीका भी बहिष्कार करना नहीं चाहते। अन्त्यज तुलसीदासको तो यहीं स्थान दिया जा सकता है।

आपको मण्डलमें रखनेका उद्देश्य स्पष्ट है कि जब आप आश्रममें रहें तब सभीको आपकी सलाहकी आवश्यकता महसूस हो सकती है। मान भी लें कि मगनलालको यह आवश्यकता महसूस नहीं होती; किन्तु क्या आपको इससे हिचकिचाना चाहिए? यदि मण्डलकी मेरी कल्पना सही है तो महादेव, किशोरलाल और मगनलाल उसका बोझ नहीं उठा सकते।

शालाका आदर्श यह है कि हम प्रयोगोंके द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा क्या है, इसे ढूंढ़ निकालें और उसमें शिक्षक भी शिष्यके रूपमें रहें; क्योंकि वे स्वयं शोधक हैं और प्रयत्नरत हैं। मैं आपको और अपने आपको भी इसी पंक्तिमें रखता हूँ। आपने खादीके सम्बन्धमें जो कल्पना की है वही कल्पना शिक्षाके सम्बन्धमें भी सत्य है।

आपको जो करना है वह यह है कि आप नियमोंमें संशोधन-परिवर्धन करके भेजें। आपकी टीकाके उस भागको, जो सबको मान्य हो, नियमोंको रूप देते समय भुलाना असम्भव है। इसलिए मैं आपकी टीकाको आपके हाथों नियमोंमें समाविष्ट देखना चाहता हूँ। इससे सबको समझनेमें आसानी होगी। नहीं तो हम सब शास्त्रार्थ करने लग जायेंगे।