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९७. पत्र : द० बा० कालेलकरको

आश्रम
२ जुलाई, १९२६

भाईश्री ५ काका,

आपके दोनों पत्र मिले। मैं देखता हूँ कि आपने जो-कुछ लिखा है उसमें से बहुत-सा तो गलतफहमीमें लिखा है। मैं पीछे बिलकुल नहीं हटता। बात सिर्फ इतनी ही है कि मैं व्यवस्था समितिमें नहीं हूँ और मुझे उचित भी यही लगता है। जो भी नियम बनाये गये हैं, वे समितिने बनाये हैं। नामके चुनावमे भी मुझ अकेलेकी बात न मानी जाये। व्यवस्था समितिमें आवश्यकतासे अधिक सदस्य हैं, ऐसा मुझे नहीं लगता। मामा[१] और नरहरि[२] इस समय यहाँ आते ही नहीं। विनोबासे इस समय यह बात तय हुई है कि वे हर तीन महीनेमें यहाँ आयेंगे और कुछ समय रहेंगे। मैंने नियमोंकी एक-एक नकल मामा, नरहरि और अप्पाको[३] भेजनेका निर्देश दे दिया है।

आश्रमकी स्थापना करते समय[४] सिद्धान्तोंकी रचना हो गई थी इसीसे आप इन नियमोंमें सिद्धान्तोंका समावेश नहीं देखते। पण्डितजी[५] और छगनलाल जोशी[६] दोनों मण्डलमें रह सकते हैं। उनका आग्रह यही है कि वे इसमें न रहें। उनकी दलील मुझे मधुर लगी। वे मण्डलके बारेमें न तो निरुत्साही हैं और न उदासीन। मैं मण्डलको नितान्त आवश्यक मानता हूँ। हाँ, मेरा उद्देश्य यह अवश्य है कि मण्डलको बहुतसे नियमोंसे कदापि न जकड़ा जाये।

मैं यह मानता हूँ कि हम अभी कुटुम्बोंके मामलोंमें नहीं पड़ सकते। जो व्यक्ति आश्रममें पाँच वर्षतक रहा हो और उसके व्रतोंका पालन करनेका भारी प्रयत्न करता हो वह व्यवस्थापक बनाया जा सकता है। व्यवस्थापक मण्डलके सब विभागोंपर सबका सामान्य अधिकार है। यदि नियमोंका अर्थ जो आप करते हैं वही हो तो उनको बदलना पड़ेगा। मैंने स्कूलकी कल्पना तो आश्रमकी स्वराज्य-भोगी संस्थाके रूपमें की है। व्यवस्थापक मण्डलमें सदस्योंके अधिकारकी बात तो उठती ही नहीं। मैं तो आश्रम में रहना और अन्यत्र रहते हुए भी आश्रमका जीवन व्यतीत करना एक ही बात समझता हूँ।

  1. वामन लक्ष्मण फड़के।
  2. नरहार द्वा० परीख।
  3. अप्पा साहब पटवर्धन।
  4. सन् १९१५ में।
  5. शायद पं० नारायण मोरेश्वर खरे।
  6. आश्रमकी शालाके प्रधानाध्यापक।