९४. पत्र : सेवकराम करमचन्दको
आश्रम
साबरमती
२ जुलाई, १९२६
आपका पत्र मिल गया। स्वप्न दोषको पूर्णतः बन्द करना सर्वथा सम्भव है। मुझे इसमें पूर्ण सफलता तो नहीं मिल पाई है; पर मैं जानता हूँ कि ऐसा सर्वथा सम्भव है। मैं बहुधा महीनोंतक इससे मुक्त रहा हूँ। और मुझे ऐसा भी याद है कि एक बार तो मुझे एक वर्षसे भी अधिक कालतक स्वप्नदोष नहीं हुआ। स्वप्नदोषसे मुक्तिकी उस अवस्थामें विघ्न कैसे आया, उसकी एक लम्बी कहानी है। ये स्वप्नदोष न तो स्वाभाविक हैं और न स्वास्थ्यप्रद। ये वास्तव में स्वास्थ्यके पूर्ण विकासमें बाधक होते हैं और जब मनुष्यका मस्तिष्क हर प्रकारकी वासनासे पूर्णत: मुक्त रहता है तब स्वप्नमें वीर्यपात तो हो ही नहीं सकता। सभी मनुष्य ऐसी स्थिति प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु इस स्थितिको प्राप्त करनेके लिए सतत और कष्टकर प्रयास दरकार है।
आपका दूसरा पत्र भी मिला। उसके बारेमें मैं बादमें 'यंग इंडिया' के पृष्ठोंमें लिखनेकी सोच रहा हूँ। मैं अर्सेसे आपके छात्रोंके लिए अपने ही हाथसे एक पत्र लिखकर भेजना चाहता था, लेकिन कोई-न-कोई बाधा पड़ती ही रही। अब कुछ पंक्तियाँ लिख रहा हूँ।[१]
हृदयसे आपका,
अध्यापक
एम० ए० वी० स्कूल
पुराना सक्खर
अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १९६४८) की माइक्रोफिल्मसे।
- ↑ यह सहपत्र उपलब्ध नहीं है।