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अनीतिकी राहपर - १

लूं। इसलिए मैंने इस विषयका जो साहित्य भारत सेवक समाजसे मिल सका, मँगाकर पढ़ा। काका कालेलकरने, जो इस विषयका अध्ययन कर रहे हैं, मुझे हैवलॉक एलिसकी खास तौरपर इस विषयका निरूपण करनेवाली एक पुस्तक दी और एक मित्रने 'प्रेक्टिश्नर' का एक विशेषांक मेरे पास भेज दिया, जिसमें इस विषयपर विख्यात डाक्टरोंने अपनी सम्मतियाँ प्रकट की हैं।

इस विषयपर साहित्य इकट्ठा करनेका प्रयोजन केवल यह था कि जहाँतक सामान्य व्यक्ति कर सकता है वहाँतक ब्यूरोके सिद्धान्तोंकी जाँच कर ली जाये। अक्सर देखा जाता है कि चाहे विशेषज्ञ ही किसी प्रश्नपर विचार क्यों न कर रहे हों, प्रश्नोंके दो पहलू रहते ही हैं और दोनोंपर बहुत कुछ कहा जा सकता है। इसलिए मैं पाठकों के सम्मुख ब्यूरोकी यह पुस्तक रखने से पहले कृत्रिम उपायोंके पक्षमें सारी युक्तियाँ जान लेना चाहता था। बहुत सोच-विचारकर मैं इस परिणामपर पहुँचा हूँ कि कमसे-कम भारतवर्षके लिए तो कृत्रिम उपायोंकी कोई आवश्यकता नहीं है। जो भारतवर्षमे इन उपायोंका प्रचार करना चाहते हैं वे या तो इस देशकी यथार्थ दशाका ज्ञान नहीं रखते या जानबूझकर उसकी परवाह नहीं करते। और फिर यदि यह सिद्ध हो जाये कि इन उपायोंका काममें लाया जाना पाश्चात्य देशोंके लिए भी हानिकारक है तब तो फिर भारतवर्षकी विशिष्ट स्थितिमें उनपर विचार करने की आवश्यकता भी नहीं रहती।

आइये; देखें ब्यूरो क्या कहता है। उसने फ्रांसकी दशापर ही विचार किया है। परन्तु यह भी हमारे लिये बहुत काफी है क्योंकि फ्रांस संसारके सबसे उन्नतिशील देशोंमें गिना जाता है; और जब ये उपाय वहाँ भी सफल नहीं हुए तो फिर और कहाँ हो सकते हैं?

असफलताके अर्थके सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न रायें हो सकती हैं। इसलिए अच्छा है कि 'असफल' शब्दसे जो मेरा अर्थ है उसकी व्याख्या मैं कर दूं। यदि यह बात सिद्ध कर दी जाये कि इन उपायोंका अवलम्बन करनेके कारण लोगोंके नैतिक आचार भ्रष्ट हो गये, व्यभिचार बढ़ गया और कृत्रिम सन्तति-नियमनके उपाय केवल स्वास्थ्य रक्षा अथवा गृहस्थोंकी आर्थिक दशा ठीक रखने के लिए ही काममें नहीं लाये गये बल्कि वे वासनाओंकी पूर्तिके लिए काममें लाये गये तो इन उपायोंका असफल हो जाना सिद्ध हुआ मान लेना चाहिए। यह सामान्य स्थिति है। उत्कृष्ट नैतिक सिद्धान्त तो सन्ताननिग्रहके लिए गर्भनिरोधके कृत्रिम उपायोंको निन्दनीय ही ठहरायेगा क्योंकि उसके अनुसार विषयभोग केवल सन्तानोत्पत्तिकी इच्छासे ही किया जाना चाहिए जैसे कि भोजन केवल शरीर रक्षाकी दृष्टिसे। तीसरी तरहके भी मनुष्य हैं, जिनका कहना यह है कि “नैतिक आचार-विचार सब फिजूल हैं और यदि नैतिक आचार कुछ हैं ही तो वे यही हैं कि चाहे जितना विषयभोग करो, वही जीवनका उद्देश्य है; बस इतना ध्यान रहे कि स्वास्थ्य न बिगड़ने पाये, नहीं तो जो विषयभोग हमारा उद्देश्य है उसीमें बाधा पड़ जायेगी।" मैं समझता हूँ कि श्री ब्यूरोने यह पुस्तक ऐसे लोगोंके लिए नहीं लिखी है क्योंकि पुस्तकके अन्तमें टॉम मैनके यह शब्द दिये गये हैं : 'भविष्य सच्चरित जातियोंका है।'

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