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८६. पत्र : इग्नेशियसको

आश्रम
साबरमती
३० जून, १९२६

प्रिय इग्नेशियस,

आपका पत्र मिला और पुस्तक भी। पुस्तक भेजनेपर अपने मित्रको मेरी ओरसे धन्यवाद दे दें। मैंने पुस्तक पढ़ ली है। मेरे पास इसकी एक प्रति भी है; इसलिए मैं इसे आपको लौटा रहा हूँ। मैंने यह पुस्तक यरवदा जेलमें पढ़ी थी और एक प्रसिद्ध कैथोलिक ईसाईने शायद देहरादूनमें मुझे उसकी एक प्रति दी थी। मुझे यह पुस्तक इसलिए अच्छी लगी कि उसमें एक साधु प्रवृत्तिकी बालिकाने बड़ी ही मोहक, सहज और सरल शैलीमें अपनी जीवन-कथा लिखी है और अपनी आशा-अभिलाषाओंको चित्रित किया है। उसके अतिमानव प्रसंगोंमें मेरी कोई रुचि नहीं। उसने मठमें प्रवेश पानेके लिए जो लगन दिखाई, उसके कारण मेरे मनमें उसके प्रति आदर और प्रशंसाका भाव है। उसके चरित्रकी शुचिता स्तुत्य है, और उसका कठोर आत्मनिरीक्षण प्रेरणास्पद। सन्तोंमें उसकी गणना आदि बातोंमें मुझे कोई दिलचस्पी नहीं।

हृदयसे आपका,

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १११९८) की माइक्रोफिल्मसे।

८७. पत्र : च० राजगोपालाचारीको

आश्रम
साबरमती
३० जून, १९२६

प्रिय च० रा०,

तिरुपुरकी खादीके बारेमें आपका पत्र मिला। शिकायत इस मौसममें बनी खादीको लेकर नहीं है। तुलना गत वर्ष और इस वर्षके उत्पादनके बीच की गई है। पत्र-लेखक स्वयं एक खादी प्रेमी हैं और तिरुपुरकी खादीके प्रशंसक हैं। उनका कहना यह है कि वहाँकी खादीकी किस्म दिन-ब-दिन खराब होती जा रही है। आप जानते हैं कि जेराजाणी ने [१] भी एक हदतक इस बातकी पुष्टिकी है। सार्वजनिक रूपसे कोई बयान चाहे न दिया जाये, पर इसकी जाँच और बारीकीसे कराना जरूरी है।

  1. विठ्ठलदास जेराजाणी।