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८५. पत्र : उर्मिला देवीको[१]

आश्रम
साबरमती
३० जून, १९२६

आपका पत्र मिला। उसके बाद मुझे भोम्बलकी मृत्युकी खबर भी मिल गई। यद्यपि उसकी मृत्युसे बहुत बड़ा आघात लगा है, लेकिन उसके लिए इस चोलेको छोड़ना शायद अच्छा ही रहा। पता नहीं सुजाता दुःखके इस पहाड़को कैसे उठा रही होगी। लड़केके अन्तिम क्षण कैसे बीते, यह मुझे अवश्य लिखें उसमें त्रुटियाँ तो कई थीं, परन्तु उसके स्वभावमें एक तरहका सौजन्य भी था, जो बहुत ही भला लगता था। परन्तु उसमें अपने आन्तरिक दोषसे लड़नेकी शक्ति नहीं रही थी।

बंगालकी राजनीतिकी बात सोचकर मैं खिन्न और दुःखी हो जाता हूँ।[२] इतनी दूर बैठकर उसकी पेचीदगियाँ समझना कठिन है। दासके सबसे अधिक विश्वस्त लोग अलग क्यों हो गये? मुझे तो कुछ ऐसा ही लगता है कि यदि आप इस झगड़ेसे अलग रहतीं तो अच्छा होता। परन्तु आप तो वहीं हैं। इसलिए यह फैसला आप ही कर सकती हैं कि आपके लिए ज्यादासे-ज्यादा ठीक क्या है।

देघापतियाकी[३] मृत्यु भी बहुत ही दुःखजनक है। मुझे याद पड़ता है कि उनसे मेरी मुलाकात दार्जिलिंगमें हुई थी। कब हुई थी यह आप जानती हैं। जान-पहचान बहुत कम समयकी ही थी, इसलिए मैंने उनके परिवारके सदस्योंको संवेदनाका पत्र नहीं लिखा। अब यदि आप ठीक समझें, तो उन्हें मेरी संवेदना सूचित कर दें। और उनका बेटा, उसका क्या हाल है?[४] बड़ी ही दुःखद बात है। जिन बातोंपर मनुष्य का कोई नियन्त्रण नहीं उनके बारेमें जब वह सोचता है तो अपने आपको अत्यन्त असहाय अनुभव करता है।

हाँ, देवदास अब बिलकुल ठीक है और जमनालालजीके मित्रोंके साथ मसूरीमें रहकर स्वास्थ्य लाभ कर रहा है। आश्रम में एक जर्मन महिला अभी हालमें ही आई हैं। कैसी चलेंगी, मैं नहीं जानता। अभी कुछ कहा नहीं जा सकता।

आपका,

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १०९५४) की फोटो-नकलसे।

  1. चित्तरंजन दासकी बहन।
  2. उमिलादेवीने २१ जून, १९२६ के अपने पत्र में अन्य बातोंके साथ-साथ लिखा था कि सेनगुप्त गुट और तथाकथित धनिकोंके गुटके बीच लगातार झगड़े चलते रहते हैं। धनिकोंके गुटमें टी० सी० गोस्वामी, एन० आर० सरकार, एस० सी० बोस और डॉ० बी० सी० राय-जैसे नेता हैं। पत्रमें कहा गया था कि इस गुटने कांग्रेस बिलकुल त्याग दी है और शरारती लोगोंके साथ साठ-गांठ कर ली है (एस० एन० १०९४६)।
  3. देघापतियाके राजा।
  4. उर्मिलादेवीने लिखा था कि राजाका अट्ठाईस वर्षीय पुत्र बहुत बीमार है और मरणासन्न है।