पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 30.pdf/९९

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६३
सच्ची शिक्षा क्या है?

ही शिक्षा कहा जा सकता है। आजकल जो शिक्षा दी जाती है, उससे मनका थोड़ा-बहुत विकास भले ही होता हो, लेकिन हम कह सकते हैं कि उससे शरीर और आत्माका विकास नहीं होता। मुझे तो इसमें भी सन्देह है कि उससे मनका विकास होता है, क्योंकि यदि शिक्षाके द्वारा हम मनमें जानकारीका बहुत सारा खजाना भरते हैं, तो इससे कहीं उसका विकास हुआ नहीं माना जा सकता। इससे हम मनको शिक्षित हुआ नहीं कह सकते, क्योंकि शिक्षित मन मनुष्यको बहुत ठीक काम देता है। आजका अक्षर-ज्ञान प्राप्त मन तो हमें जहाँ-तहाँ भटकाता है। यह तो जंगली घोड़े के समान हुआ। जंगली घोड़ेको जब हम अपने नियन्त्रणमें ले आते हैं तभी उसे शिक्षित, सधा हुआ घोड़ा कहा जा सकता है। आजकलके "शिक्षित" नौजवानोंमें ऐसे कितने हैं, जिनमें हम शिक्षाका यह लक्षण देखते हैं?

आइए, अब शरीरकी ओर दृष्टिपात करें। हमेशा एक घंटा टेनिस, फुटबॉल अथवा क्रिकेट खेल लेनेसे क्या हम शरीरको शिक्षित हुआ कह सकते हैं? यह सच है कि शरीर इससे मजबूत होता है। लेकिन जैसे जंगलमें मनमाना दौड़ने-फिरनेवाले घोड़ेका शरीर मजबूत तो कहा जा सकता है, किन्तु शिक्षित नहीं कहा जा सकता, उसी प्रकार ऐसा शरीर मजबूत होते हुए भी शिक्षित नहीं कहा जा सकता। शिक्षित शरीर नीरोग होता है, मजबूत होता है, कसा हुआ होता है और उसके हाथ-पैर आदि भी इच्छित कार्य कर सकते हैं। उसके हाथोंमें कुदाली, फावड़ा, हथौड़ा आदि सुशोभित होते हैं और ये हाथ इन सबका उपयोग भी कर सकते हैं। उन हाथोंमें यदि चरखा हो तो चरखा सुन्दर ढंगसे चलेगा अथवा फन्नी आदि करघेके औजार हों और पैर करघा चला रहे हों तो वे भी ठीक चलते दिखेंगे। तीस मीलकी यात्रा करते हुए शिक्षित शरीर थकेगा नहीं; पहाड़ चढ़ जायेगा, हाँफेगा नहीं। ऐसी शारीरिक शिक्षा कैसे मिलती है? हम कह सकते हैं कि आधुनिक पाठ्यक्रम में इस दृष्टिसे शारीरिक शिक्षा नहीं दी जाती।

आत्माका तो पूछना ही क्या? इसका विकास तो आत्मज्ञानी अथवा आत्मार्थी ही कर सकता है। हम सबमें सुप्त इस आत्मिक शक्तिको कौन जगा सकता है? शिक्षक तो विज्ञापन करनेसे मिल जाते हैं। उन्हें जो प्रमाण-पत्र पेश करने पड़ते हैं, उसमें ऐसा कॉलम तो होता नहीं कि वे आत्मार्थी हैं या नहीं। यदि हों तो भी उसकी कितनी कीमत हो सकती है? विज्ञापन करनेसे आत्मार्थी शिक्षक मिल भी कैसे सकते हैं? और आत्मिक शिक्षासे विहीन शिक्षा तो नींव रहित चिनाईके समान है। अथवा अंग्रेजी कहावतका प्रयोग करें तो सफेदी की हुई कब्रके समान है, जिसके अन्दर तो वह मृत शरीर ही पड़ा हुआ है, जिसे जन्तु खा चुके हैं अथवा खा रहे हैं।

इस तरह की विविध शिक्षा प्रदान करना गुजरात विद्यापीठका ध्येय है और होना चाहिए। इस ध्येयका अनुसरण करते हुए यदि एक भी नवयुवक अथवा नवयुवती तैयार हो तो मैं मानूँगा कि विद्यापीठका जन्म सफल हुआ।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, शिक्षा-परिशिष्ट, २८-२-१९२६