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सन्देश: विद्यार्थियोंको

अकेला ही जूझता है। इस विद्यापीठमें हम आत्मबलकी शिक्षा देने आये हैं——सो इसमें साथ देनेवाला एक हो या अनेक इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आत्मबल ही सच्चा बल है। और यह निश्चित मानिए कि यह बल तपश्चर्या, त्याग, दृढ़ता, श्रद्धा और नम्रता और विनयके बिना प्राप्त नहीं हो सकता।

इस विद्यालयकी आधारशिला आत्मशुद्धि है। अहिंसामय असहयोग उसका प्रगट स्वरूप है। इस असहयोगके "अ" वर्णका अर्थ सरकारी पाठशाला इत्यादिका त्याग है। लेकिन जबतक हम अन्त्यजोंके साथ सहयोग नहीं करते, एक धर्मको माननेवाला व्यक्ति दूसरे धर्मके लोगोंसे सहयोग नहीं करता, खादी और चरखेको पवित्र स्थान देकर हम हिन्दुस्तानके करोड़ों लोगोंके साथ सहयोग नहीं करते तबतक वह "अ" निरर्थक है, उसमें अहिंसा नहीं, हिंसा अर्थात् द्वेष है; विधिके बिना निषेध, जीवके बिना देहके समान है। उसका तो अग्नि-संस्कार कर देना ही ठीक होगा।

सात लाख गाँवोंमें सात हजार रेलवे स्टेशन हैं। हम इन सात हजार गाँवोंके भी लोगोंको नहीं जानते और रेलवेसे दूर रहनेवाले ग्रामीण भाइयोंकी स्थितिका खयाल तो हमारे मनमें सिर्फ इतिहास पढ़कर ही आ सकता है। उनके साथ निर्मल सेवा-भावका सम्बन्ध जोड़ने का एक-मात्र साधन चरखा ही है। जिसने यह बात अभीतक नहीं समझी हो, उसका इस राष्ट्रीय महाविद्यालयमें रहना मैं निरर्थक मानता हूँ। जहाँ हिन्दुस्तानके गरीब लोगोंका विचार नहीं किया जाता, जहाँ गरीबीको दूर करनेके लिए उपाय नहीं किये जाते, वहाँ राष्ट्रीयता नहीं है। गाँवोंसे सरकारका सम्बन्ध तो लगान वसूल करनेतक ही सीमित है। किन्तु उनके साथ हमारे सम्बन्धोंका प्रारम्भ चरखे द्वारा उनकी सेवासे होता है। लेकिन खादी पहनने और चरखा चलानेमें ही उस सेवाका अन्त नहीं है। चरखा तो उस सेवाका केन्द्र-बिन्दु है। अगर आगे आनेवाली किसी छुट्टी दिनोंमें आप किसी दूरस्थ गाँवको ढूँढकर वहाँ रहेंगे तो आपको मेरी बातोंकी सचाईका प्रत्यक्ष अनुभव हो जायेगा। वहाँ आप लोगोंको निस्तेज और भयभीत पायेंगे। वहाँ आपको घर नहीं खण्डहर दिखेंगे। वहाँ आप आरोग्यके नियमोंका भंग होते देखेंगे और पशुओंकी स्थितिको दयनीय पायेंगे। किन्तु इस सबके बावजूद आप वह आलस्य देखेंगे। आप पायेंगे कि लोगोंको चरखेका स्मरण तो है, लेकिन चरखेकी या किसी भी प्रकारके उद्यमकी बात उन्हें अच्छी नहीं लगती। वे आशा छोड़ चुके हैं। यह तो मृत्युका दोष है कि वे जी रहे हैं। आप खुद चरखा चलायेंगे, तभी वे भी चलायेंगे। तीन सौकी आबादीवाले गाँवमें सौ लोग भी चरखा चलायेंगे तो उस गाँवको कमसे-कम १,८०० रुपयेकी अतिरिक्त वार्षिक आय होगी। इस आयके आधारपर आप हर गाँवमें उसके सुधार-कार्यकी नींव डाल सकते हैं। यह काम कहनेमें तो बहुत आसान लगता है, लेकिन करनेमें वह बहुत मुश्किल है। जहाँ श्रद्धा होगी, वहाँ वह आसान हो जायेगा। "मैं तो एक ही हूँ, फिर सात लाख गाँवोंमें कैसे जाऊँ?"——ऐसा गलत और अभिमान सूचक हिसाब न लगाइये। जब आप इस विश्वासके साथ काम करेंगे कि यदि आपमें से प्रत्येक एक-एक गाँवमें आसन जमाकर बैठ जायेगा तो दूसरे लोग भी वैसा ही करेंगे। तभी देशकी उन्नति होगी।