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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कामको छोड़नेवाले नहीं हैं। आपकी कठिनाइयाँ मैं समझ सकता हूँ। लेकिन, क्या किसी भी उपक्रममें सफलताका मतलब उन कठिनाइयोंपर——चाहे वे जितनी भी बड़ी हों——विजय प्राप्त करने की क्षमता ही नहीं है? आपको जितना वेतन मिलता है, उतनेसे अगर आप अपना काम नहीं चला सकते तो आपको मुझे बताना चाहिए कि आपको कितनेकी जरूरत है। अगर उतना पैसा चरखा कोषसे न दिया जा सकता हो तो आपके लिए कुछ अतिरिक्त कामकी व्यवस्था की जा सकती है। जहाँ चाह है, वहाँ राह है। जरूरत सिर्फ इस संकल्पकी है कि चाहे जितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़े, खादीको नहीं छोड़ूँगा। लेकिन हाँ, अगर खादीमें आपका विश्वास डिग गया हो तो मुझे बताना चाहिए। मैंने मित्रोंसे बार-बार यह कहा है कि अगर आप लोग अपने अनुभवसे देखें कि खादीकी योजना अव्यवहार्य है तो आप चाहें तो निस्संकोच भावसे पहले मुझे बतायें और फिर जनताको सूचित करें। किसी गलत चीजको कायम रखने और प्रोत्साहन देनेकी मेरी कोई ख्वाहिश नहीं है, चाहे उससे अपना हाथ खींचनेमें मुझे निजी तौरपर कितनी भी व्यथा पहुँचे। सच तो यह है कि अपनी गलतीका पता लग जानेसे मुझे दुःख नहीं, सच्ची प्रसन्नता ही होगी। इसलिए जब कभी किसी मित्रको लगे कि खादीमें मेरा विश्वास तो हवाई किला बनाने-जैसा है तो उसे मेरे साथ मुरौवत करनेकी कोई जरूरत नहीं है। लेकिन अगर खादीमें आपका विश्वास उतना ही ताजा है जितना कि वह लेख लिखनेके दिनोंमें था तो आपको किसी भी हालतमें उसे छोड़ना नहीं चाहिए। जरूरी लगे तो खुद ही आकर मुझसे बात कीजिए।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत एन॰ एस॰ वरदाचारी,
इरोद

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ १११८४) की माइक्रोफिल्मसे।

६८८. पत्र: वी॰ लॉरेंसको

साबरमती आश्रम
१३ जून, १९२६

प्रिय लॉरेंस,

महीनों बाद या वर्षों बाद कहूँ?——तुम्हारा एक लम्बा पत्र मिला। पढ़कर बड़ी प्रसन्नता हुई। मुझे मालूम था कि तुम्हारा एक लड़का जफनामें रहता है। मगर यह कैसी बात है कि वह मुझे कभी लिखता ही नहीं? मेरा खयाल है, अब तुम्हारी आर्थिक स्थिति ऐसी है कि उसे एक बार मुझसे मिलनेके लिए आने दे सकते हैं। वह यहाँ आ जाये; फिर मैं उसे कताईकी कुछ शिक्षा दूँगा और यहीं आकर वह असली भारतीय जीवनकी भी झाँकी पा सकेगा।