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६८६. अपंग ढोरोंका क्या हो?

एक गोसेवक लिखते हैं:[१]

मेरे गोरक्षा सम्बन्धी लेख जिसने ध्यानपूर्वक पढ़े होंगे, उसके मनमें मेरे विचारोंके सम्बन्धमें शंका उठ ही नहीं सकती, क्योंकि मैं अपंग जानवरोंको छोड़ देनेकी तो कल्पना भी नहीं कर सकता। मैं मानता हूँ कि ऐसे ढोरोंकी रक्षा करना हम सबका धर्म है। लेकिन मैंने कई बार बताया है कि इतनेसे जीवदयाका ध्येय पूरा नहीं होता। गोरक्षाका अर्थ बहुत विस्तृत है और सिर्फ कमजोर ढोरोंकी रक्षा करके ही हम गाय-भैंसोंके प्रति अपना धर्म पूरा नहीं कर सकते। गोरक्षाका अर्थ है ढोरोंकी आज जो अनावश्यक हत्या हो रही है, उसकी रोकथाम धार्मिक ढँगसे, यानी किसी भी मनुष्यको नुकसान पहुँचाये बिना करना। आज तो हमने अपने अज्ञान या धर्मान्धताके कारण गोरक्षाका अर्थ अत्यन्त संकुचित कर रखा है और इसी कारण हम अपनी आँखोंके सामने होनेवाले इस अनावश्यक पशु-वधको बर्दाश्त कर रहे हैं। थोड़ी ही समझसे, थोड़े त्यागसे और व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करके हम असंख्य गायों-भैंसों की जान बचा सकते हैं और हिन्दुस्तानके धनकी रक्षा कर सकते हैं। इन पृष्ठोंमें यही बात बतानेका प्रयत्न किया जा रहा है। इस रक्षा-प्रयत्नमें कमजोर ढोर तो सहज ही बच जाते हैं। यह भी कहा जा सकता है कि आज कमजोर जानवर हमारे सिरपर भार-रूप हैं और इससे उनकी सच्ची रक्षा नहीं होती। मेरा दृढ़ विश्वास है कि हम जब गोरक्षाका प्रश्न ज्ञानपूर्वक हल कर लेंगे, तब हम ऐसे ढोरोंकी रक्षा सुन्दर ढंगसे कर सकेंगे।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १३-६-१९२६

६८७. पत्र: एन॰ एस॰ वरदाचारीको

साबरमती आश्रम
१३ जून, १९२६

प्रिय वरदाचारी,

आपका पत्र पढ़कर तो मैं हैरान रह गया। आप खादीका काम छोड़नेकी इच्छा कैसे कर सकते हैं? हाँ, अगर खादी परसे आपका विश्वास ही उठ गया हो तो अलग बात है। मुझे तो यह उम्मीद थी कि और कोई भले ही छोड़ दे, आप इस

  1. पत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है। पत्र-लेखक इसमें सामान्यतः गांधीजीके विचारोंका समर्थन करते हुए यह जानना चाहता था कि यदि गांधीजीकी सलाहके अनुसार वर्तमान गोशालाएँ दुग्धशालाएँ बना दी जायें तो उस अवस्थामें अपंग पशुओंकी क्या व्यवस्था की जायेगी।