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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

भजन करता है और उसे जानने-पहचाननेका प्रयत्न भी करता है। वह उसकी पहचान कर लेना अपना पुरुषार्थ समझता है। परन्तु यदि यह कहा जा सके कि पशु भी ईश्वरका भजन करता है तो वह अनिच्छासे ही ऐसा करता है, स्वेच्छासे नहीं। पशुके सम्बन्ध में ईश्वरको भजनेकी इच्छाकी कल्पना ही नहीं की जा सकती। और मनुष्य तो अपनी इच्छासे शैतानकी भी पूजा करता है। इसलिए मनुष्यका स्वभाव तो ईश्वरको जानना ही होना चाहिए और है भी। वह जब शैतानकी पूजा करता है तब वह अपने स्वभावके प्रतिकूल कार्य करता है। यदि कोई यहीं मानता हो कि मनुष्य और पशुमें कोई जाति-भेद नहीं है तो उसके लिए मेरी यह दलील अवश्य निरर्थक है। वह अवश्य यह कह सकता है कि पाप-पुण्य-जैसी कोई चीज नहीं। ईश्वर सम्बन्धी जिज्ञासाके स्वभावसे युक्त मनुष्यके लिए तो खाना-पीना इत्यादि क्रियाएँ भी तभी स्वाभाविक हो सकती हैं जब वह उन्हें एक विशेष दृष्टिसे करे। कारण, ऐसा स्वभाव रखनेवाला मनुष्य खानेके लिए अथवा जिह्वा-सुखके लिए नहीं खाये-पियेगा, बल्कि ईश्वरकी पहचान करनेके लिए भी खाये-पियेगा। इसलिए उसके खाने-पीनेमें भी सदा चुनाव-मर्यादा और त्याग ही दिखाई देंगे।

इसी प्रकार विचार करनेसे हमें यह भी मालूम होगा कि विषयभोग मनुष्य-स्वभावके प्रतिकूल है। इस भोगका सर्वथा त्याग करना ही उसके स्वभावके अनुकूल है। और इस भोगका सर्वथा त्याग किये बिना ईश्वरको जानना भी असम्भव है। मनुष्यका धर्म अपने भीतर निहित सर्व-शक्तियोंका सम्पूर्ण विकास करना नहीं है। वह उसका स्वभाव भी नहीं है। उसका धर्म तो ईश्वरके निकट ले जानेवाली सब-शक्तियोंका विकास करना और उसके प्रतिकूल पड़नेवाली तमाम शक्तियोंका सर्वाशिमें त्याग कर देना ही है।

जिस प्राणीको ग्रहण और त्यागकी स्वतन्त्रता है, उसका काम पाप-पुण्यका भेद माने बिना ही नहीं चल सकता। पाप-पुण्यका दूसरा अर्थ है त्याज्य और ग्राह्य कर्म। दूसरेकी चीज उससे छीन लेना त्याज्य है, पाप है। हममें अच्छी-बुरी वृत्तियाँ हैं। बुरी वृत्तियोंका त्याग करना हमारा धर्म है। यदि हम वैसा न करें तो हम मनुष्य जन्म प्राप्त करनेपर भी पशु बन जाते हैं और इसीलिए तो सभी धर्म पुकार-पुकारकर यह कहते हैं कि मनुष्य जन्म दुर्लभ है और हमें मनुष्य देह अपनी कसौटी करनेके लिए दी गई है। और हिन्दू-धर्म कहता है कि इस कसौटीमें उनुत्तीर्ण होनेपर हमें फिर पशुयोनिमें जाना होगा।

इस संसारमें हिंसा सब जगह व्याप्त है। एक अंग्रेजी वाक्यका अर्थ है, कुदरतके नाखून खूनसे रंगे होते हैं। यदि हम ऊपर-ऊपरसे इसी वाक्यपर विचार करेंगे तो उसका सत्य हमें जगह-जगहपर दिखाई देगा। परन्तु यदि हम मनुष्यको दूसरे प्राणियोंसे ऊँचा मानें और उसमें एक विशेष इन्द्रियका आरोपण करें तो हमें फौरन ही यह मालूम होगा कि इस लाल खूनसे रंगे नाखूनोंवाली कुदरतके बीचमें मनुष्य ऐसे नखोंसे हीन बड़ी शोभा पा रहा है। मनुष्यका यदि कोई अलौकिक कर्त्तव्य है, उसको शोभा दे——ऐसा कोई कर्त्तव्य है तो वह अहिंसा ही है। वह हिंसाके मध्यमें खड़ा