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पत्र: चक्रवर्ती राजगोपालाचारीको

रामदास इस समय जिस तरह खादी बेच रहा है, उससे मुझे तनिक भी क्षोभ नहीं होता। वह लोगोंको बलात् खादी देता है, यह बात नहीं कही जा सकती। हाँ, यह अवश्य कहा जा सकता है कि लोग शरमसे अथवा परोपकारकी भावनासे खादी लेते हैं। इसमें मुझे कुछ बुराई नहीं दिखाई देती। खादीका प्रचार पहले-पहल इसी ढंगसे हो सकेगा। खादीपर कारीगरोंको जो दाम दिये जाते हैं, उससे कहीं ज्यादा खर्च होता है। उसमें से जितना बने, उतना बचाना हमारा धर्म है और वह कार्यकर्त्ताकी श्रद्धा और त्यागवृत्तिपर निर्भर करता है। यह सुधार धीरे-धीरे हो रहा है, ऐसा मैं मानता हूँ। लेकिन इस बारेमें तुम जितने सुझाव दे सको, उतने देना। जितनेपर अमल हो सकता है, उतने सुझावोंपर हम अवश्य अमल करेंगे।

अब तुम्हारे बारेमें: खादी प्रवृत्तिपर तुम्हारी श्रद्धा किस बातसे कम हो गई है, यदि मैं यह जान सकूँ तो औषधि बता सकता हूँ। बिना वेतन लिये काम करनेकी इच्छाको हमें प्रोत्साहन देना चाहिए। लेकिन ऐसा कितने लोग कर सकते हैं? तुम स्वयं वैसा करो, उससे पहले कितनी ज्यादा जवाबदेही उठानेकी आवश्यकता मालूम होती है? आश्रममें जितने दिन रहना तुम्हें ठीक लगे, उतने दिन अवश्य रह सकते हो। आश्रमने तुम्हें तैयार किया है और पुरस्कार तुम्हारा चरित्र है। तुम सदा उसकी रखवाली करते रहो, उसमें वृद्धि करते रहो, यही उसका बदला है। आश्रम तुमसे यही अपेक्षा कर सकता है। आश्रममें रहकर तुम कबतक सेवा कर सकते हो, यह बात कदाचित् तुम्हारी सुविधापर निर्भर करती है। मनुष्य चिन्तामुक्त अपने आप ही हो सकता है। यदि चिन्ता-मुक्तिका आधार सुविधाओंपर हो तो वह मुक्ति कभी नहीं मिलती। वहाँ मौसम पूरा होनेपर यहाँ अवश्य आना। उससे पहले तुम्हें जो विशेष लिखता हो सो लिखना। मेरे पत्रमें यदि कोई उत्तर धूरा हो तो उसे पूरा करवाना।

गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १०९२७) की फोटो-नकलसे।

६७५. पत्र: चक्रवर्ती राजगोपालाचारीको

साबरमती आश्रम
१२ जून, १९२६

आपका पत्र मिला। दुर्भाग्य तो आपके सामने आयेगा ही। लेकिन तिरुचेनगोडुमें आपकी उपस्थितिसे जलाभावका सम्बन्ध उतना ही है जितना कि उसी जिलेमें आनेवाले किसी नवागन्तुकसे उसका सम्बन्धं हो सकता है। जो लोग आपपर, प्रतिद्वन्द्वका आरोप लगाते हैं, वे अनजाने ही आपकी उपस्थितिको आवश्यकतासे अधिक महत्त्व देते हैं। लेकिन, चूँकि इससे आपके गर्वसे फूल उठनेका उतना खतरा नहीं है, इसलिए जो भले लोग आपपर ऐसा आरोप लगाते हैं, उन्हें इस भ्रमसे जितना आनन्द वे प्राप्त कर सकें, करने दीजिए।

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