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६७३. पत्र: देवचन्द पारेखको

साबरमती आश्रम
शुक्रवार, ११ जून, १९२६

भाई देवचन्दभाई,

इसके साथ दीवानजीका पत्र है। अब इस माहके अन्ततक तो राह देखनी ही चाहिए।

गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १९६१२) की माइक्रोफिल्मसे।

६७४. पत्र: कान्तिलाल ह॰ पारेखको

साबरमती आश्रम
११ जून, १९२६

भाईश्री कान्तिलाल,

तुम्हारा सारमूलक पत्र मिला। तुमने लिखा सो ठीक किया। अब भी जो पूछना हो, सो निस्संकोच पूछना। खादीके कामका दायित्व तुम्हारे और तुम-जैसे लोगोंके कन्धोंपरसे तबतक नहीं हटाया जा सकता जबतक ऐसे व्यक्ति नहीं मिल जाते जो औरोंपर कम बोझ डालें और जो तुम्हारे समान शक्तिवाले हों अथवा जबतक वे खादीके काममें आत्मनिर्भर नहीं हो जाते। खादीके प्रचारके साथ-साथ सरल जीवनके प्रचारका कार्य भी चल ही रहा है। जबतक हमारी कुछ-एक बुरी आदतें दूर नहीं होतीं, तबतक खादी व्यापक नहीं होगी।

खादीको व्यावहारिक बनानेका अर्थ यदि यह किया जाता है कि वह मिलके कपड़ेसे होड़ करने लगे तो यह बात मैं लगभग असम्भव मानता हूँ। धर्मको किसी भी दिन होड़में नहीं डाला जा सकता। मिलवाले तो खादीका नाश करनेके लिए मिलका कपड़ा मुफ्त भी बेच सकते हैं, लेकिन क्या हम खादी इस तरह बेच सकते हैं? व्यापारमें तो चीजोंको मुफ्त बेचनेतक की होड़ होती है।

वहाँके कार्यकी सारी टीका सुननेके लिए मैं तैयार हूँ, और यदि उचित जान पड़े तो वे सब दोष निकालनेके लिए भी तैयार हूँ। यदि यह शिकायत है कि कार्यकर्त्तागण निजी आदमी है, इसलिए उस कार्यालयकी माँगें तुरन्त स्वीकार की जाती हैं तो मैं जानता हूँ कि यह शिकायत निराधार है। कारण ऐसा करना मेरे स्वभावके विरुद्ध है। हाँ, एक बात सच है। जहाँ विश्वास नहीं बैठता, वहाँ मैं बिलकुल निकम्मा हो जाता हूँ। तुम्हें शिकायत उचित लगी है, इसका कारण यदि तुम मुझे बताओगे तो मुझे प्रसन्नता होगी।