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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जीवनमें ये क्षण बड़े मूल्यवान हैं। ये क्रियाएँ हमें नम्र और हमारे मन शान्त बनानेके लिए होती हैं, और इनके द्वारा हममें इस बातकी प्रतीति करनेकी क्षमता आती है कि उस परमशक्तिमानकी इच्छाके बिना सृष्टिमें कुछ भी नहीं होता और हम "उस कुम्हारके हाथमें मिट्टीके समान" हैं। इन क्षणोंमें व्यक्ति अपने निकट अतीतके आचरणपर विचार करता है, अपनी कमजोरियोंको स्वीकार करता है, ईश्वरसे क्षमायाचना करते हुए अच्छा बनने तथा अच्छे कर्म करनेकी शक्ति पानेकी कामना व्यक्त करता है। किसीके लिए एक क्षण ही काफी हो सकता है और किसीके लिए चौबीस घंटे भी बहुत कम हो सकते हैं। जो लोग अपने भीतर निरन्तर ईश्वरकी उपस्थितिका अनुभव करते रहते हैं, उनके लिए श्रम ही प्रार्थना है। उनका जीवन तो एक सतत प्रार्थना या पूजा है। फिर, जो लोग करनेके नामपर सिर्फ पाप करते हैं, विषय-वासनामें रत रहते हैं, और अपने ही लिए जीते हैं, उनके लिए कितना भी समय काफी नहीं है। अगर उनमें धैर्य, आस्था और शुद्ध बननेकी इच्छा हो तो वे तबतक प्रार्थना करते जायेंगे जबतक कि उन्हें अपने भीतर ईश्वरकी पावनकारी उपस्थितिका अनुभव न होने लगे। हम सामान्य मर्त्यजनोंको इन दोनोंके बीचका मार्ग अपनाना चाहिए। हम इतने ऊपर नहीं उठ चुके हैं कि कह सकें, हमारे सारे कार्य प्रार्थना और आराधना ही हैं, और शायद हम इतने पतित भी नहीं हो गये हैं कि सिर्फ अपने लिए ही जियें। इसलिए, सभी धर्मोंमें सामान्य आराधनाके लिए विशेष समय निर्धारित कर दिये गये हैं। किन्तु, दुर्भाग्यकी बात है कि आजकल इस सबने या तो पाखण्डका रूप ले लिया है या मात्र यान्त्रिक और औपचारिक क्रियाका। इसलिए आवश्यकता इस बातकी है कि इन आराधनाओंके समय लोगोंके जो मनोभाव होते हैं, उन्हें बदला जाये।

और जहाँतक ईश्वरसे कुछ माँगनेके अर्थमें बिलकुल व्यक्तिगत प्रार्थनाका सम्बन्ध है, यह तो मातृभाषामें ही की जानी चाहिए। इससे अच्छा तो कुछ हो ही नहीं सकता कि हम ईश्वरसे प्राणि-मात्रके प्रति न्यायका व्यवहार करनेकी शक्ति देनेको कहें।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया,१०-६-१९२६