पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 30.pdf/६३५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

६६४. प्रार्थना क्या है?

चिकित्सा शास्त्रके एक स्नातकने पूछा है:

प्रार्थनाका सबसे अच्छा रूप क्या है? इसमें कितना समय लगाना चाहिए? मेरे विचारसे तो न्याय करना ही सबसे अच्छी प्रार्थना है, और जो व्यक्ति ईमानदारीसे ऐसा चाहता है कि वह सबके साथ न्याय करे, उसे और प्रार्थना करनेकी कोई जरूरत ही नहीं है। कुछ लोग संध्या करनेमें बहुत समय लगाते हैं, और उनमें से ९५% लोग, उस समय जो मन्त्रोच्चार करते हैं, उसका कोई अर्थ ही नहीं जानते। मेरे विचारसे, प्रार्थना मातृ-भाषामें की जानी चाहिए। आत्मापर इसीका प्रभाव हो सकता है। मैं तो कहूँगा कि सच्चे मनसे की गई क्षण-भरकी प्रार्थना भी पर्याप्त है। ईश्वरसे इतना वादा कर देना काफी है कि मैं पाप नहीं करूँगा।

प्रार्थनाका मतलब है श्रद्धापूर्वक ईश्वरसे किसी वस्तुकी माँग करना। लेकिन, इस शब्दका प्रयोग किसी भक्तिपूर्ण कार्यके लिए भी किया जाता है। पत्र लेखकके मनमें जो बात है, उसके लिए पूजा अधिक उपयुक्त शब्द होगा। किन्तु, परिभाषाकी बात छोड़ दीजिए तो सवाल यह है कि करोड़ों हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, यहूदी और अन्य धर्मावलम्बी अपने स्रष्टाकी आराधनाके लिए निर्धारित समयमें प्रतिदिन क्या करते हैं? मुझे तो लगता है कि वे जो-कुछ करते हैं वह स्रष्टाके साथ हृदयके एकाकार होनेकी उत्कंठाकी अभिव्यक्ति, उसकी कृपाकी याचना है। तो यहाँ मुख्य बात यह नहीं है कि उस समय कोई किन शब्दोंका उच्चार या जाप करता है, बल्कि यह है कि उसका मनोभाव कैसा है। और प्राचीनकालसे प्रार्थनाके लिए प्रयुक्त होते आ रहे शब्दोंके साथ जो एक विशेष भाव जुड़ गया है, उसके कारण अकसर उनमें ऐसा प्रभाव होता है जो प्रभाव उन शब्दोंके मातृ-भाषामें अनुवाद कर दिये जानेपर नहीं रह जाता। इस प्रकार अगर गायत्रीका, मान लीजिए, गुजरातीमें अनुवाद करके उसका जाप किया जाये तो उसमें वह प्रभाव नहीं होगा जो मूलमें है। राम नामका उच्चार करोड़ों हिन्दुओंके मनको तत्काल प्रभावित करेगा, किन्तु "गॉड" (ईश्वर) शब्दके उच्चारका उनपर वैसा कोई प्रभाव नहीं होगा, यद्यपि वे उस शब्दका अर्थ समझते हैं। आखिरकार दीर्घकालतक प्रयोगमें रहने और प्रयोगके साथ पवित्रताका भाव जुड़ा रहनेसे शब्दोंमें भी एक विशेष शक्ति तो आ ही जाती है। इसलिए अत्यन्त प्रचलित मन्त्रों या श्लोकोंके लिए प्राचीन संस्कृत रूप कायम रखनेके पक्षमें बहुत-कुछ कहा जा सकता है। और यह कहनेकी तो जरूरत ही नहीं है कि उनका अर्थ अच्छी तरह समझ लेना चाहिए।

इन भक्तिपूर्ण कार्योंमें कितना समय लगाया जाये, इसके बारेमें कोई निश्चित नियम नहीं है। यह बात व्यक्तिकी भावनापर निर्भर करती है। व्यक्तिके दैनिक