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६५९. पत्र: राय प्रभुदास भीखाभाईको

साबरमती आश्रम
मंगलवार, ८ जून, १९२६

भाई प्रभुदास,

तुम्हारा विस्तृत पत्र मिला। तुमने लिखा सो ठीक ही किया। तुम्हारी दलीलमें कहीं भी त्रुटि नहीं है। लेकिन केवल प्राणायाम आदिसे ब्रह्मचर्यका पालन नहीं हो सकता, ऐसा मेरा तथा जिन्होंने प्राणायाम आदि क्रियाओंको किया है उनका अनुभव है। लेकिन मैं यह मानता हूँ कि जिन्होंने मनपर नियन्त्रण प्राप्त कर लिया है उन्हें प्राणायाम आदि मदद करते हैं। ऐसे बहुत ही कम व्यक्ति दिखाई देते हैं जिन्होंने इस दृष्टिसे योगका व्यापक अभ्यास किया हो और उसके प्रयोग किये हों। जिसे दिनमें एक ही समय और एक बारमें जितना खाना चाहिए उतना ही खानेकी आदत हो, उसके बारेमें मुझे कुछ नहीं कहना है। लेकिन यदि मनुष्य एक ही समयमें तीन बारमें जितना खाना चाहिए उतना खा ले तो उससे ब्रह्मचर्यको कोई मदद नहीं मिलती है। उससे ब्रह्मचर्य भंग होता है और शरीरको नुकसान पहुँचता है। ब्रह्मचर्यके पालनके लिए तुमने जिस पौष्टिक खुराककी बात कही उसकी आवश्यकताके बारेमें दो मत हैं और मुझे उसके बारेमें पूरी-पूरी शंका है। लेकिन तुम जिस ढंगसे चल रहे हो उससे यदि तुम्हें ब्रह्मचर्यके पालनमें मदद मिलती हो, आत्माका विकास होता हो, समस्त इन्द्रियाँ वशमें आती हों तो मेरे लिखनेसे तुम कोई परिवर्तन करो, यह मैं नहीं चाहता। तुम अपने प्रयोग करो और अनुभव तुम्हें जो परिवर्तन करनेके लिए कहे सो करो और उसमें यदि तुम्हें ऐसी सफलता मिले कि तुम्हारे विचार भी विकारग्रस्त न हों तो तुम्हारे प्रयोगोंसे जगतका कल्याण होगा। इतना याद रखना कि ब्रह्मचर्यका मतलब सारी इन्द्रियोंका मनसा, वाचा, कर्मणा संयम है। इस व्याख्याके अनुसार यदि आँखमें या विचारमें भी विकारका संचार हो अथवा स्वप्नमें भी स्राव हो तो यह ब्रह्मचर्यका खण्डन माना जायेगा।

गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १२१८७) की फोटो-नकलसे।