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६५२. पत्र: जनकधारी प्रसादको

साबरमती आश्रम
८ जून, १९२६

प्रिय जनकधारी बाबू,

बहुत दिनोंके बाद आपका एक पत्र मिला। बड़ी प्रसन्नता हुई। स्कूल जिन कठिनाइयोंसे गुजर रहा है, उन्हें मैंने समझ लिया। विश्वास समयकी सीमा नहीं मानता। और जो विश्वास समयकी सीमासे बँधा हुआ है, वह विश्वास तो विश्वास है ही नहीं। इसलिए अगर आपको अपने इस कार्यमें अनन्त विश्वास है तो मुझे तनिक भी सन्देह नहीं कि यह कार्य सफल होगा, क्योंकि यह अच्छा कार्य है।

उन दो कठिनाइयोंके बारेमें भी मैं तो यही कहूँगा। इस समय वातावरण इतना दूषित हो गया है कि मैं किसी नये दल या मण्डलकी स्थापनाकी सलाह ही नहीं दे सकता। हममें से जो लोग हिन्दू-मुस्लिम एकताके सम्बन्धमें किसी भी तरहकी आक्रामकतामें विश्वास नहीं रखते या किसी भी रूपमें कौंसिलोंमें प्रवेश करना ठीक नहीं मानते, उनमें से हरएकको अपने सिद्धान्तपर दृढ़ रहना चाहिए। हमारी उमंग और उत्साह कायम रहे, इसके लिए हमें किसी संगठनकी जरूरत नहीं है। जिन्हें ऐसी बाहरी सहायताकी जरूरत है, समझ लीजिए, उनमें गहरा विश्वास नहीं है, और मैं चाहता हूँ कि जिनमें गहरा और स्थायी विश्वास है, सिर्फ वही लोग कौंसिलोंके झमेलेसे बाहर रहें। कारण, हो सकता है हमारे भाग्यमें अभी और भी कठिन परीक्षाओंसे गुजरना लिखा हो। इसलिए, उस हालतमें कमजोर विश्वासवाले लोग घुटने टेक देंगे। जो लोग कठिनसे-कठिन विघ्न-बाधाओंके सामने भी डिगनेवाले नहीं हैं, सफलता अन्तमें उन्हींको मिलेगी, क्योंकि मुझे तो असहयोगके अलावा स्वतन्त्रता प्राप्त करनेका कोई और रास्ता दिखाई नहीं देता। जैसे-जैसे दिन बीतते हैं, उसमें मेरा विश्वास भी बढ़ता जाता है।

आशा है, आप बिलकुल स्वस्थ होंगे।

हृदयसे आपका,
मो॰ क॰ गांधी

श्रीयुत जनकवारी प्रसाद


श्री गांधी विद्यालय
डाकघर हाजीपुर


जिला मुजफ्फरपुर

अंग्रेजी पत्र (जी॰ एन॰ ५०) तथा (एस॰ एन॰ १९६०४) की फोटो-नकलसे भी।