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६५०. पत्र: डॉ॰ बी॰ एस॰ मुंजेको

साबरमती आश्रम
७ जून, १९२६

प्रिय डॉ॰ मुंजे,

आपका पत्र मिला। बेशक, आपने मेरे सामने एक ऐसे कामका प्रस्ताव किया है जिसमें मेरी भी दिलचस्पी है। लेकिन चूँकि यह सारी परिकल्पना आपकी है, इसलिए इसे मैं दूसरोंसे कार्यान्वित कैसे करवाऊँगा? अगर आप व्याकरणका अध्ययन सुगम बनानेके लिए कुछ लिख दें और उसमें अपने दर्शनका प्रचार न करें तथा आपकी कृतिको संस्कृतके पण्डित लोग ठीक करार दे दें तो उसे छपवाकर लागत मूल्यपर बेचनेकी जिम्मेवारी मैं अपने सिर ले लूँगा या अगर आपकी जानकारीमें कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसने आपके विचारोंको ठीकसे समझ लिया हो और अगर वह ऐसा व्याकरण लिखने को तैयार हो किन्तु उसे आर्थिक सहायताकी आवश्यकता हो तो मैं उससे निवेदन करूँगा और उसकी सेवाएँ प्राप्त करनेकी कोशिश करूँगा। जो भी हो, फिलहाल गुजरात विद्यापीठ, जितना कुछ सम्भव है, उतना कर रहा है। लेकिन, मैं जानता हूँ कि अगर संस्कृतके अध्ययनको आसान बनाया जा सके और प्रयोग द्वारा यह प्रमाणित भी किया जा सके कि वह आसान बना दिया गया है, तब इस क्षेत्रमें जितनी सफलता मिल सकती है, उसकी तुलनामें विद्यापीठका काम कुछ भी नहीं है। खुद मैं तो संस्कृतके अध्ययनको काफी आसान मानता हूँ। हमारे दिमागपर अंग्रेजीके अस्वाभाविक अध्ययनका जो बोझ पड़ा हुआ है, उसे संस्कृतका अध्ययन कुछ बढ़ायेगा, ऐसा नहीं है। अंग्रेजीके वर्तमान अध्ययनको मैं अस्वाभाविक इसलिए कहता हूँ कि इसने देशी भाषाओंको अपदस्थ कर रखा है।

हृदयसे आपका,

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ १९६०३) की फोटो-नकलसे।