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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जाते हैं। कुछ ब्राह्मणोंने तो 'भागवत' और अन्य धर्म-ग्रन्थोंकी कथा करना भी स्वीकार किया है। अब इस बहिष्कारका उनपर कैसा असर होता है यह देखना चाहिए।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ६-६-१९२६

६४६. पत्र: के॰ टी॰ पॉलको

साबरमती आश्रम
६ जून, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला और प्रबन्ध-समितिके मूल पत्र भी। इन पत्रोंसे तो मुझे साफ लगता है कि निमन्त्रण आपकी प्रेरणासे भेजा गया था। वैसे आपने यह काम मेरे प्रति अपनी गहरी सद्भावना और जनता, विशेषकर युवक समाजपर, मेरे प्रभावकी अपनी अतिरंजित कल्पनाके कारण ही किया। लेकिन, आज तो मैं इस बातको और भी ज्यादा महसूस कर रहा हूँ कि अभी वह समय नहीं आया है, जब इन पत्रोंसे जो कारण सामने आते हैं, ऐसे मामूली कारणोंसे मुझे भारतसे बाहर जाना चाहिए। सेवाके लिए मेरे भारतसे बाहर जाने की बात तो तभी उठ सकती है जब मुझे उसकी आवश्यकताकी असन्दिग्ध प्रतीति हो। समितिके ये पत्र वास्तवमें आपकी इस इच्छाके परिणाम स्वरूप लिखे गये हैं कि हेलसिंगफोर्सके सम्मेलनमें मैं भी उपस्थित रहूँ। लेकिन, मैं अपनी मर्यादाओंको जानता हूँ, और मेरे सन्देशके लोगोंके हृदयतक पहुँचनेके मार्गमें जो कठिनाइयाँ हैं, उन्हें भी समझता हूँ। और अगर मेरे सन्देशमें कोई शक्ति है तब तो मेरी शारीरिक उपस्थितिके बिना भी लोग उसे महसूस करेंगे ही।

मैं जानता हूँ कि मेरे निर्णयसे आपको बड़ी निराशा होगी, लेकिन जीवनमें मुझे अपने स्नेही मित्रोंको निराश ही करते रहना पड़ा है। मगर मैं यह भी जानता हूँ कि इन निराशाओंसे हानिके बजाय लाभ ही हुआ है। मेरे कारण आपको बहुत परेशानियाँ उठानी पड़ीं। कृपया उस सबके लिए क्षमा करें और हेलसिंगफोर्सके जो मित्र वहाँ मेरी उपस्थितिकी अपेक्षा करते रहे हों, उनसे भी क्षमा करनेको कहें। कहनेकी जरूरत नहीं कि आपके सम्मेलनकी कार्यवाहीमें मेरी शुभ-कामनाएँ साथ होंगी। ईश्वरसे कामना करता हूँ कि आपकी यात्रा सकुशल सम्पन्न हो।

मैं मूल पत्रोंको लौटाता हूँ।

हृदयसे आपका,
मो॰ क॰ गांधी

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ ११३५७) की फोटो-नकलसे।