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धर्मके नामपर अधर्म

अमरेलीके अन्त्यज मंदिरके लिए श्री रामेश्वरदास बिड़लाने २,५०० रुपये दिये थे। इस रुपयेसे सुन्दर मन्दिर बनाया गया। उसमें श्री लक्ष्मीनारायणकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठा कराई गई और वह मन्दिर खोला गया। उसके सम्बन्धमें जो रिपोर्ट मेरे पास आई है उसमें निम्नलिखित बातें भी हैं:

प्रतिष्ठा करानेवाले आचार्यपर ब्राह्मणोंने बहुत जुल्म किया, यद्यपि यजमान अन्त्यज-वर्गका न था। इस अन्त्यज मन्दिरमें प्रतिमाकी प्रतिष्ठा कराते समय अन्त्यज अलग बिठाये गये थे। दक्षिणा भी अन्त्यजोंकी तरफसे नहीं दी गई थी। मन्दिरके निर्माणमें जो रुपया खर्च हुआ वह भी अन्त्यजोंका न था। यानी यह मन्दिर अन्त्यजोंके लिए था, यही आचार्यका अपराध था। इस अपराधके लिए उन्हें मूँछ मुड़वानी पड़ी और प्रायश्चित्त करना पड़ा।

मैं इस प्रकार अपने स्वाभिमानको भूल जानेवाले आचार्यकी प्रशंसा नहीं कर सकता। यदि प्राण-प्रतिष्ठा करानेका कार्य धर्मका काम था तो यह प्रायश्चित्त, प्रायश्चित्त नहीं, परन्तु पाप ही कहा जा सकता है। आचार्यका बहिष्कार भी किया जाता तो उससे उनकी क्या हानि होती? जाति-बहिष्कारके भूतसे आज जरा भी डरनेकी आवश्यकता नहीं है। जिन्होंने हिम्मतके साथ अपना बहिष्कार होने दिया है उन्हें कुछ भी नुकसान नहीं हुआ है। यही नहीं ये तो झूठे बन्धनसे मुक्त हुए हैं। ब्रह्मानन्द[१] कहते हैं:

रे समज्या विना नव नीसरिए
रे रणमध्ये जईने नव डरिए
रे प्रथम चढे शूरो थईने
रे भागे पाछो रणमां जईने
ते शुं जीवे भूंडुं मुख लईने?[२]

ऐसे समयपर यह वचन कितना उचित मालूम होता है। मुझे यह आशा न थी कि अमरेली-जैसे आगे बढ़े हुए शहरमें भी ब्राह्मण लोग इतना अज्ञान और ऐसी धर्मांधता दिखायेंगे।

इस प्रकार यद्यपि अमरेलीके कुछ ब्राह्मणोंने हिन्दूधर्मका अपमान किया है तो दूसरोंने उसकी प्रतिष्ठा भी बढ़ाई है, क्योंकि प्राण-प्रतिष्ठाके समय सभी वर्णोंके हिन्दू इकट्ठे हुए थे। उनमें ब्राह्मण, वैश्य, लुहार, बढ़ई इत्यादि सब थे। अधिकारी वर्ग भी था। अन्त्यजोंके सिवा दूसरे लोग भी अन्त्यज-मन्दिरका उपयोग करते हुए देखे

  1. गुजराती कवि।
  2. बिना समझे-बूझे आगे नहीं बढ़ना चाहिए। रण-क्षेत्रमें जानेके बाद डरना नहीं चाहिए। जो प्रथम तो शूर बनकर निकल पड़ता है, परन्तु रणमें जाकर पीछे भागने लगता है वह अपना श्रीहीन मुख लेकर क्या जीयेगा