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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

ऐसे गोरक्षा हो सकती है?

एक गो-सेवक लिखते हैं:[१]

यह बड़ी दुःखद बात है। और बहुतेरी गोशालाओंका प्रबन्ध भी इसी प्रकार चलाया जाता होगा। १,५०० गोशालाओंका होना कोई छोटी-मोटी बात नहीं। इतनी गोशालाएँ सुव्यवस्थित तौरपर चलती हों और वे किसी एक संगठनके अधीन हों तो उनके जरिये हजारों जानवरोंका निर्वाह हो सकता है, करोड़ोंकी आय हो सकती है और गोरक्षाकी कुँजी हमारे हाथ लग सकती है। उक्त गोशालामें ११,००० रुपयेका टोटा नहीं पड़ना चाहिए। एक भी बछियाका दान नहीं किया जा सकता। यदि यही गोशाला आदर्श दुग्धालय बन जाये तो उस गाँवको उसके जरिये सस्ता घी और दूध मिल सकता है; और उसके साथ-साथ चर्मालय भी चलता हो तो लोगोंको जूते इत्यादि चमड़ेकी आवश्यक वस्तुएँ भी प्राप्त हो सकती हैं। आज तो रुपयेके-रुपये खर्च होते हैं और एक भी गाय कसाईखानेमें जानेसे नहीं बचती। तात्पर्य यह है कि गोशालाओंका कार्य बड़ा संकुचित हो गया है। गोशाला ऐसा स्थान बन गया है जहाँ पंगु ढोरोंकी ज्यों-त्यों करके रक्षा की जाती है।

हमें यदि कोई व्यापार करना हो तो हम उसके लिए रुपये देकर भी कुशल मनुष्योंको रखते हैं। नुकसान होता हो तो उसके कारण खोजते हैं। उसमें नित्य नये सुधार करते हैं और जबतक उसमें नुकसान दिखाई देता है तबतक निश्चित होकर नहीं बैठते। गोशालाका उद्देश्य कोई छोटा-मोटा व्यापार करना नहीं बल्कि गोरक्षाके महान् धर्मका पालन करना है। परन्तु यह कार्य हम अनुभवहीन मनुष्यों द्वारा उनकी फुरसतके समयमें कराते हैं। इस प्रकार काम करनेवाले मनुष्य आत्म-प्रवंचना करके यह मान लेते हैं कि वे सेवा-धर्मका पालन करते हैं। दान करनेवाले गोरक्षा होती है यह मानकर अपने मनको छलते हैं और इस धर्मके बहाने लाखों रुपये फिजूल खर्च होते हैं। यदि पत्रलेखकने निम्नलिखित बातें भी लिखी होतीं तो उससे इस गोशालाके कामकी अधिक अच्छी तरह जाँच की जा सकती थी।

(१) पंगु और दुर्बल ढोरोंकी संख्या।

(२) दूध देनेवाली गाय भैंसोंकी संख्या।

(३) रोजके दूधका परिमाण।

(४) बछड़े-बछियोंकी संख्या।

(५) बैलों और पाड़ोंकी संख्या।

(६) जमीनका क्षेत्रफल।

(७) गोशाला गाँवमें है या गाँवके बाहर।

(८) ढोरोंकी मृत्यु-संख्या।

(९) मृत ढोरोंकी व्यवस्था।

  1. पत्र यहाँ नहीं दिया गया है। पत्र-लेखक एक गोशाला देखने गये थे। अपने पत्रमें उन्होंने बताया था कि वह गोशाला किस प्रकार घाटेमें चलाई जा रही है।