पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 30.pdf/६१४

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५७८
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जाये। परन्तु अधिकसे-अधिक दूर जानेपर भी कुछ हिंसा तो अनिवार्यतः होगी ही, जैसे श्वासोच्छ्वास अथवा खाने-पीने आदिमें। अनाजके प्रत्येक कणमें जीव है। इसलिए यदि हम मांसाहारके बजाय अन्नाहार करते हैं तो उससे हम हिंसासे मुक्त नहीं हो जाते; परन्तु अन्नाहारमें होनेवाली हिंसाको अनिवार्य समझकर अन्नका आहार करते हैं। हमें जीवित रहनेके लिए अन्न खाना चाहिए और आत्माकी पहचान करनेके लिए जीवित रहना चाहिए। इसीलिए तो भोगके लिए आहार करना सर्वथा वर्जित है। इस पुरुषार्थकी साधनाके लिए जो हिंसा अनिवार्य हो वह हम लाचार होकर करें। अब हम यह समझ सकेंगे कि पूरा खयाल रखनेपर भी जलके जीवों और खटमल आदिके सम्बन्धमें जो-कुछ करना अपरिहार्य मालूम हो वह हमें करना होगा। मैं यह मानता हूँ कि ऐसा कोई दिव्य नियम नहीं हो सकता कि अमुक स्थितिमें प्रत्येक मनुष्य एक ही प्रकारका आचरण करे, दूसरे प्रकारका न करे। अहिंसा हृदयका गुण है। हिंसा-अहिंसाका निर्णय मनुष्यकी भावनाके आधारपर किया जा सकता है। इसलिए हरएक मनुष्य जो अहिंसा-धर्मको अपना कर्त्तव्य मानता हो उपर्युक्त सिद्धान्तके अनुसार अपने कार्यकी व्यवस्था स्वयं करे। मैं यह जानता हूँ कि ऐसा उत्तर देनेमें एक दोष है। इससे मनुष्य अपनी इच्छानुसार चाहे जितनी हिंसा करके भी अपने को और संसारको ठगेगा और अनिवार्यताकी आड़ लेकर हिंसाका बचाव करेगा। परन्तु ऐसे लोगोंके लिए यह लेख नहीं लिखा गया। यह तो उनके लिए लिखा गया है जो अहिंसाको मानते हैं; परन्तु जिनके सामने समय-समयपर धर्म-संकट आ उपस्थित होता है। ऐसे मनुष्य अनिवार्य हिंसा भी बहुत संकोचपूर्वक करेंगे और अपनी प्रवृत्ति-मात्रके विस्तारको कम करेंगे, बढ़ायेंगे नहीं; यहाँतक कि वे अपनी एक भी शक्तिका स्वार्थ-दृष्टिसे उपयोग नहीं करेंगे; वे केवल समाज-सेवाके भावसे ही ईश्वरार्पण बुद्धिसे अपनी सब शक्तियोंका उपयोग करेंगे। संतोंकी अर्थात् अहिंसक और दयालु लोगोंकी सब विभूतियाँ परोपकारके लिए ही होती हैं। जहाँ अहंकार होता है वहाँ हिंसा अवश्य होती है। प्रत्येक कार्यको करते समय मनमें यह प्रश्न कर लेना चाहिए इसमें अहं है या नहीं? जहाँ अहं नहीं है वहाँ हिंसा नहीं है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ६-६-१९२६