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६४३. भारत सेवक समाजकी क्षति

नाके ऐतिहासिक किबेवाड़ा क्षेत्रमें गत सप्ताह भयंकर आग लगी और भारत सेवक समाजके ज्ञानप्रकाश और आर्यभूषण प्रेस जल गये। इससे जितना नुकसान भारत सेवक समाजका हुआ है उतना ही जनताका भी हुआ है। ज्ञानप्रकाश ८० वर्ष पुराना प्रेस था और आर्यभूषण प्रेसके साथ चिपलूणकर, आगरकर और लोकमान्य तिलक-जैसे लोकनेताओंके नाम जुड़े हुए थे। इसके द्वारा ही उन्होंने अपनी सार्वजनिक प्रवृत्ति आरम्भ की थी। इस तरह कहा जा सकता है कि इस आगमें दो बहुमूल्य स्मृति-मन्दिर नष्ट हो गये। भस्मीभूत वस्तुओंमें अनेक पुस्तकें, पुस्तकोंकी पाण्डुलिपियाँ और स्वर्गीय गोखलेकी जीवनीके लिए इकट्ठी की गई बहुत सारी सामग्री भी है।

इस अग्निकाण्डसे होनेवाली तात्कालिक हानि तो यह है कि फिलहाल समाजके दो पत्रों——'सर्वेन्ट आफ इंडिया' तथा 'ज्ञान प्रकाश'——का प्रकाशन कुछ दिनोंतक बन्द रहेगा। हम उम्मीद करते हैं कि पाठक न केवल इसका खयाल ही नहीं करेंगे, अपितु समाजके प्रति अपनी पूरी-पूरी सहानुभूति भी प्रकट करेंगे और यथाशक्ति मदद देंगे। यहाँ यह बात बताते हुए हर्ष होता है कि दोनों छापाखानोंके कर्मचारियोंने ८,००० रुपये का लाभांश छोड़ दिया है और अनेक प्रेसोंने भारत सेवक समाजको तात्कालिक सहायता देनेकी इच्छा प्रकट की है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ६-६-१९२६

६४४. अहिंसाकी गुत्थी

एक भाई लिखते हैं[१]:

इस प्रकारके प्रश्न बार-बार उठाये जाते रहते हैं। ऐसे प्रश्नोंको तुच्छ समझकर टाल देनेसे भी काम नहीं चल सकता। पूर्व और पश्चिमके गूढ़ ग्रन्थोंमें भी ऐसे प्रश्नोंकी चर्चा की गई है। मेरी अल्पमतिके अनुसार तो इन सब प्रश्नोंका एक ही उत्तर है, क्योंकि सभीका मूल एक ही है। ऊपर कही गई सभी क्रियाओंमें हिंसा अवश्य है, क्योंकि क्रियामात्र हिंसामय है और इसलिए सदोष है। भेद है तो सिर्फ कम या अधिक परिमाणका ही। देह और आत्माका सम्बन्ध ही हिंसापर आधारित है। पाप-मात्र हिंसा है और पापका सर्वथा क्षय तो देह-मुक्तिमें ही सम्भव है। इसलिए देहधारी अहिंसाके आदर्शको दृष्टिके सम्मुख रखकर जितना दूर जा सके उतना दूर

३०-३७
 
  1. पत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है। इसमें लेखकने गांधीजीसे पूछा था कि आपके विचारसे व्यावहारिक जीवनमें पूर्ण अहिंसाका पालन कहाँतक सम्भव है, क्योंकि जीव-नाशसे पूर्णतः बचना कदापि सम्भव नहीं है।