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पत्र: लक्ष्मीदास पुरुषोत्तम आसरको

ही दुःख क्यों न पड़े उसे सहकर स्थिर हो जायें। हमेशा दुःख ही रहेगा, ऐसा माननेका कोई कारण नहीं।

गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १९५९८) की माइक्रोफिल्मसे।

६४०. पत्र: अमृतलालको

साबरमती आश्रम
५ जून, १९२६

भाईश्री ५ अमृतलाल,

आपका पत्र मिला। आपको चाहिए कि आपकी बहनको जो दुःख उठाने पड़े हैं उनके बारेमें आप उसके पति और ससुरको बतायें और उसे न भेजनेकी बात लिख भेजें। किन्तु ऐसा करनेसे पहले यह भी समझना आवश्यक है कि आपकी बहन वस्तुतः क्या चाहती है। क्योंकि यदि वह आवेशमें आकर भाग आई हो और बादमें पछताये अथवा विकारवश होकर कुकर्म करे तो उसकी अपेक्षा कदाचित् यही अच्छा होगा कि वह अभी सब समझ-बूझकर वापस चली जाये और जो भी दुःख उठाना पड़े, उठाये। इस तरह आपके सवालोंका निश्चयपूर्वक एक ही उत्तर नहीं दिया जा सकता। क्योंकि बहनकी, उसके पतिकी, सास-ससुरकी प्रकृतिसे परिचित होनेके कारण आप ही सही निर्णय कर सकते हैं। मैं तो इतना ही कह सकता हूँ कि यदि आपकी बहन ससुराल जानेको तैयार न हो तो आपको उसे अपने पास रखना चाहिए। जबर्दस्ती वापस भेजना ठीक नहीं होगा। गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १९५९९) की माइक्रोफिल्मसे।

६४१. पत्र: लक्ष्मीदास पुरुषोत्तम आसरको

साबरमती आश्रम
५ जून, १९२६

चि॰ लक्ष्मीदास,

तुम तुरन्त लौट गये, यह अच्छा ही हुआ। इस समय तुम्हारा शरीर इतना दुर्बल था कि मुझसे देखा नहीं जाता था। एक-दो महीने पूरा आराम लेकर शरीरको स्वस्थ बनाओ और उसके बाद फिर काममें जुट जाओ, इसीमें सच्ची किफायत है। मुझे अपनी तबीयतके बारेमें नियमित रूपसे खबर देते रहना। जितना तुम्हारा शरीर सहन करे उतना घूमना-फिरना। मैंने कल ही सुना कि मणि गोकीबहनके पास बहुत ऊधम मचाती है और चोरी करना भी सीख गई है। मुझे तो उसका वहाँ रहना तनिक भी पसन्द नहीं आया। इसलिए मैंने वेलाबहनको सलाह दी है कि जितनी