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६३५. पत्र: एक मुस्लिम नेताको

साबरमती आश्रम
४ जून, १९२६

भाई साहब,

आपको कई दिनोंसे खत लिखनेकी पैरवी कर रहा हूँ। अंग्रेजी जबानमें लिखनेका दिल नहीं चाहता था, न अब चाहता है। खत लंबा लिखना था। उर्दू हरफोंमें इतना लंबा खत लिखना मेरे लिये दुश्वार है, अब मैं एक आश्रमवासीके मार्फत उर्दू हर्फोंमें लिखवाकर मेरा खत भेजता हूँ। भाई एण्ड्रयूजने आपका पैगाम दिया है। मैं तो उसके आनेके पहले जब अली भाई मक्का शरीफ गये तबसे लिखना चाह रहा हूँ। हिन्दू मुस्लीम मामलेमें मैंने जानबूझकर कुछ भी नहिं लिखा है। मैं क्या लिखूँ? और मेरे गमका बयान किसको सुनाऊं? मेरा असर लड़नेवालोंपर कुछ भी नहीं है, यह मैं अच्छी तरह से जानता हूँ। आपके दर्दकी बात मुझे भाई शौकतअलीने और मनज़र अलीने बहुत सुनाई है। और मेरी खामोशीसे आपको कुछ दर्द हुआ है, वह भी मुझको समझाया गया है। जब मैं सुलह करानेमें लाचार बन गया हूं तब मैं कैसे कुछ भी लिख सकता हूं? अखबारोंमें जो हकीकतें आती हैं उसपर मेरा इतबार नहीं जमता है। मालवीयजी वगैरे मुसलमानोंके दुश्मन हैं ऐसी राय मैं जाहिर करूं ऐसा मुझको कहा गया है और हिन्दुओंके तरफसे मुसलमान भाइयोंके लिये वैसा ही लिखूं ऐसा कहा जाता है। जो चीजको मैं मानता नहीं हूं उसको मैं कैसे लिखूं? मालवीयजी वगैरे मुसलमानोंके दुश्मन हैं ऐसा मैं कबूल नहीं कर सकता हूं। इसका मतलब यह नहीं है कि उनकी सब बातें मुझको पसन्द हैं। न मैं यह कबूल कर सकता हूं कि महमद अली हिंदुके दुश्मन हैं। अगरचे उनकी भी सब बातें मुझको पसंद नहीं हैं। कलकत्तेके बारेमें मेरी राय जाहिर करनेका मुझको कहा गया है।[१] मैं मेरी राय क्या जाहिर करूं? मुझे कुछ इल्म नहीं है कि कलकत्तेमें किसने लड़ाई शुरू की और किसने ज्यादा गुन्हा किया। मैं तो इतना जानता हूं कि दोनोंका दिल बिगड़ गया है, दोनों एक-दूसरेकी ऐब ही देखते हैं, एक-दूसरोंका एतबार उठ गया है। इस हालतमें खामोशीके सिवा और कोई रास्ता मेरे-जैसेके सामने नहीं हो सकता है। मैं न बरदाश्त करता हूं एक भी मुसलमानका खून की। या एक भी हिन्दूका खूनकी——और कहो एक भी इन्सानका खून की। न मैं बरदाश्त कर सकता हूं एक मस्जिद या मन्दिर या गिरजाके ढानेकी। मेरा यकीन है कि जो खुदा हिंदुके दिलमें है वही हरएक इन्सानके दिलमें है। और मेरा यह भी यकीन है कि जितने दरजेतक मस्जिद खुदा की...है इतने ही हदतक मंदिर भी वही खुदाकी...है। खूनका बदला खून, मस्जिदका मंदिर——इस कानूनको मैं हरगिज़ नहीं मान सकता

  1. अप्रैल और मई, १९२६ में कलकत्तामें दो बार साम्प्रदायिक दंगे हुए थे।