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६३१. पत्र: वी॰ एस॰ श्रीनिवास शास्त्रीको

साबरमती आश्रम
४ जून, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला। श्री केलकरने 'केसरी' और 'मराठा' प्रेसका उपयोग करनेका प्रस्ताव रखा है, यह सचमुच उनकी नेकी और उदारता है। आप किसीसे कह दीजिएगा कि आप कोषके लिए जो भी अपील करें, उसे वह मेरे पास भेज दे। उसके सम्बन्धमें मैं जो कुछ भी कर पाऊँगा, कर्त्तव्य मानकर करूँगा।

हृदयसे आपका,

माननीय वी॰ एस॰ श्रीनिवास शास्त्री


सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी
डेकन जीमखाना पोस्ट


पूना सिटी

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ १२०५२) की फोटो-नकलसे।

६३२. पत्र: एच॰ एस॰ एल॰ पोलकको

साबरमती आश्रम
४ जून, १९२६

प्रिय हेनरी,

तुम्हारे दोनों पत्र मिले। तुमने मुझे परिवारका समाचार तो भरपूर दे डाला है। और यह मुझे अच्छा भी लगा, यद्यपि पूरा समाचार बीमारियोंसे ही सम्बन्धित है। मॉडकी बीमारीके बारेमें तो मुझे खुद उसके और मेटरके पत्रसे पूरी जानकारी मिल गयी थी। आशा है, अब वे दोनों अच्छी और स्वस्थ होंगी। मिली तो अपने साहसके बलपर ही टिकी हुई है और मैं जानता हूँ कि उसका साहस भविष्यमें अनेक वर्षोंतक ऐसी कठिन घड़ियोंमें उसे सहारा देता रहेगा। वाल्डोसे कहना कि वह मुझे ज्यादा दिनोंतक अन्देशेमें न रखे और यदि उसे लम्बा पत्र लिखनेका समय न मिल पाता हो तो कुछ-न-कुछ समय तो निकालना ही चाहिए। वह मुझे ऐसा अजनबी मानकर न लिखे जिसे सिर्फ नामसे ही जानता हो बल्कि उसे मुझको यह समझकर लिखना चाहिए कि मैं उसका एक पुराना मित्र और साथी हूँ। उसकी परीक्षा-सम्बन्धी उलझनें मेरी समझमें नहीं आतीं। लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि वह परीक्षामें बहुत अच्छा करेगा, क्योंकि आखिर वह बेटा तो तुम्हारा ही है।