६२९. पत्र: मथुरादास त्रिकमजीको
३ जून, १९२६
मैंने फिनलैंड जानेका नहीं, न जानेका ही निश्चय किया है। एक ही रास्ता खुला रखा है और वह यह कि यदि मेरे न जानेसे आमन्त्रण देनेवालेकी[१] स्थिति किसी तरह विषम होती हो तो मैं चला जाऊँगा। लेकिन इस तरहसे विषम स्थिति उत्पन्न होनेका मैं कोई कारण नहीं देखता। इसलिए ऐसा ही समझना कि जाना नहीं ही होगा।
बापुनी प्रसादी
६३०. पत्र: जयन्तीलालको
साबरमती आश्रम
गुरुवार, ३ जून, १९२६
आपका पत्र मिला। यदि आप प्रेम-विवाहका कोई विरोधी अर्थ करते हों तो मैं नहीं जानता। लेकिन यदि कोई स्त्री और पुरुष एक-दूसरेके परिचयमें पवित्रतापूर्वक रहे हों और फिर एक-दूसरेके साथ विवाह करनेकी इच्छा करें तथा इस विवाहसे कोई मर्यादा भंग न होती हो तो इस विवाहको मैं इष्ट मानता हूँ। यदि सचमुच प्रेम-विवाह हुआ तो एककी मृत्युके बाद दूसरेके मनमें दूसरा विवाह करनेका विचार कैसे उत्पन्न हो सकता है, यह बात मैं नहीं समझ सकता। यदि विधवा अक्षतयोनि हो और विवाह करना चाहे तो मैं मानता हूँ कि हमें उसका विरोध नहीं करना चाहिए। चार वर्णोंके मिश्रणको मैं अनावश्यक और अनिष्ट मानता हूँ; और इसी प्रकार सगोत्र विवाहको भी अनावश्यक और अनिष्ट मानता हूँ। सिद्धान्त यह है कि विवाहके बारेमें जितनी मर्यादा रखें उतनी कम है।
गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १९५९२) की फोटो-नकलसे।
- ↑ के॰ टी॰ पॉल।