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६२१. टिप्पणियाँ

भारत सेवक समाज

भारत-सेवक-समाज (सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी) की तरफसे मुझे प्रकाशनार्थ निम्नलिखित समाचार भेजा गया है:[१]

मुझे इसमें जरा भी सन्देह नहीं है कि ग्राहकगण दोनों पत्रिकाओंके प्रकाशनमें जो अनिवार्य बाधा उपस्थित हुई है, उसे अवश्य क्षमा कर देंगे, इतना ही नहीं, वे दोनों प्रेतोंके नष्ट हो जानेसे समाज अथवा यों कहिए कि जन-समाजको, जो हानि हुई है, उसमें उसको ग्राहकोंकी और मेरे जैसे असंख्य मित्रोंकी सम्पूर्ण सहानुभूति भी प्राप्त होगी। मुझे आशा है कि 'सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया' और 'ज्ञानप्रकाश' का प्रकाशन शीघ्र ही फिरसे आरम्भ हो जायेगा।

देशभक्ति बनाम पूँजीवाद

ये दोनों चीजें वास्तवमें परस्पर विरोधी हैं या अबतक रही हैं। लेकिन पूँजी——पूँजीवादसे और पूँजीपति——इन दोनोंसे बिलकुल भिन्न है। पूँजी तो हर आर्थिक उपक्रमके लिए जरूरी है, श्रमको भी एक प्रकारकी पूँजी ही कहा जा सकता है। लेकिन अगर हम पूँजीको पैसेके संकुचित अर्थमें लें तो भी श्रमके विनियोगके लिए कुछ-न-कुछ, चाहे वह कितना ही कम हो, पूँजीकी जरूरत होती ही है। इसलिए पूँजी और देशभक्तिमें कोई विरोध नहीं है। कोई पूँजीपति देशभक्त हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता। बिहारकी सहकारी समितियोंके रजिस्ट्रार खान बहादुर मोहिउद्दीन अहमदने पूँजीपतियोंके लिए देशभक्तिका एक रास्ता बताया है। 'टाइम्स ऑफ इंडिया' में एक समाचार छपा है कि:

मोतीहारी सेन्ट्रल को-ऑपरेटिव बैंकके भवनके उद्घाटन समारोहके अवसरपर खान बहादुरने हानिकर और लाभदायक पूँजीवादका भेद बताया। उनका सुझाव था कि औद्योगिक उपक्रमोंको दो वर्गोंमें बाँट देना चाहिए——एकका काम तो पूँजीपति करें और दूसरेका काम भारतकी ९० प्रतिशत आबादीके लाभके लिए सहकारिताकी पद्धतिसे किया जाये। कृषि उत्पादनों, जैसे रुई, ईख, तिलहन, गेहूँ आदिपर आधारित हर उद्योग सहकारिताके आधारपर चलाया जाये ताकि इन चीजोंके उत्पादकोंको अपनी उपजका अधिकसे-अधिक लाभ मिल सके। खनिज पदार्थ और लोहेसे सम्बन्धित समस्त उद्योग तथा चमड़ा उद्योग

  1. यहीं नहीं दिया जा रहा है। इसमें ज्ञानप्रकाश और सर्वेन्ट् ऑफ इंडियाके पाठकोंको उस अग्निकाण्डको सूचना दी गई थी, जिसमें आर्यभूषण प्रेस जल गया था। ये दोनों पत्रिकाएँ उसीमें छपती थीं, इसलिए कुछ दिनोंके लिए इनका प्रकाशन बन्द कर देना पड़ा था।