पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 30.pdf/५९५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५५९
राष्ट्रीय शिक्षा

वह भी स्वतन्त्रता प्राप्त करनेके अनेक मार्गोमें से एक है। ये राष्ट्रीय संस्थाएँ उन लोगोंके लिए हैं जिनकी स्वतन्त्रताकी प्यास सरकारी संरक्षण या उसके प्रबन्धमें चलनेवाले स्कूलोंसे तृप्त नहीं होती। ऐसी पाठशालाएँ भले ही बहुत कम हों, भले ही वे नगण्य-सी जान पड़ती हों, परन्तु वे एक ऐसी आवश्यकताकी पूर्ति करती हैं जिसे लोग महसूस करते हैं और जैसा कि असहयोगियोंको लगता है, उनमें सच्ची और स्थायी स्वतन्त्रताके बीज मोजूद हैं।

इन पाठशालाओंकी अन्तिम सफलता शिक्षकोंकी योग्यतापर निर्भर करती है। इसपर आलोचक कहता है, 'लेकिन वे तो राष्ट्रीय स्कूलों और कालेजोंको छोड़ रहे हैं।' हाँ, यह सच है कि कुछ लोग छोड़ रहे हैं लेकिन उनके छोड़नेसे शेष लोगोंके विश्वासकी परीक्षा होती है। क्या उनमें अकेले डटे रहने का साहस है? जो राष्ट्रीय पाठशालाएँ शेष हैं, उनको सहायता देनेके लिए क्या काफी धनवान लोग हैं? इन प्रश्नोंके सही जवाबपर ही राष्ट्रीय पाठशालाओंका भविष्य और उनके साथ ही देशकी स्वतन्त्रताका भविष्य भी निर्भर करता है और जहाँतक मैं समझ पाता हूँ, ऐसे काफी शिक्षक हैं जो कठिनसे-कठिन कसौटीपर खरे उतर सकते हैं और उन्हें मदद देनेवाले धनवान लोग भी काफी संख्यामें मौजूद हैं। मेरे जानते तो कोई भी ऐसी संस्था धनके अभावमें बन्द नहीं हुई है। संस्थाएँ हमेशा मनुष्योंकी खामियोंके कारण अर्थात् ईमानदारी, योग्यता, आत्मत्यागके अभावके कारण बन्द होती हैं। और यह मैं निश्चित रूपसे जानता हूँ कि जहाँ शिक्षक हैं, वहाँ शिष्योंकी कमी नहीं है।

लेकिन शिष्योंके कन्धोंपर शायद सबसे ज्यादा जिम्मेदारी है। उनकी योग्यता, सच्चरित्रता, लगन और देशभक्तिपर ही भविष्य निर्भर करता है। शिष्योंमें जो गुण हों उन्हें निखारनेमें शिक्षक मदद दे सकते हैं। यदि बात इससे भिन्न होती, यदि शिक्षक अपने शिष्योंमें कुछ गुणोंका सामावेश कर सकते होते तो उनसे शिक्षा पानेवाले सभी शिष्य एक-जैसे होते, जबकि हम जानते हैं कि वास्तवमें आजतक कोई भी दो शिष्य बिलकुल एक-जैसे नहीं हुए हैं। इसलिए शिष्योंमें पहल करनेकी क्षमता होनी चाहिए। उन्हें महज नकलची बनकर न रह जाना चाहिए। उन्हें स्वयं विचार करना और आगे बढ़कर काम करना सीखना चाहिए और फिर भी सर्वथा आज्ञाकारी और अनुशासित बने रहना चाहिए। सबसे ऊँची किस्मकी स्वतन्त्रताका मतलब है सबसे अधिक अनुशासन और विनम्रता। अनुशासन और विनम्रतासे उत्पन्न स्वतन्त्रताको तो मान्य करना ही पड़ता है। किन्तु संयमहीन स्वेच्छाचारिता, उद्दण्डता और अभद्रताकी निशानी है, जो खुद वैसे स्वेच्छाचारी व्यक्तिके लिए भी घातक है और उसके पड़ोसियोंके लिए भी।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ३-६-१९२६