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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

  आगे जानेका मतलब है, स्वतन्त्र और उचित आलोचना करना तथा निर्णयके अपने अधिकारका त्याग कर देना। अगर हम अपने इस अधिकारको छोड़ देते हैं तो उसका अर्थ यह होगा कि हम ऐसा करके जिस उद्देश्यको सिद्ध करना चाहते हैं, उसकी जरूरतसे कहीं ज्यादा बड़ी कीमत चुका रहे हैं।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ३-६-१९२६

६२०. राष्ट्रीय शिक्षा[१]

एक गुजराती पत्र-लेखकने राष्ट्रीय शिक्षाके सम्बन्धमें कुछ प्रश्न उठाये हैं। उनमें से कुछ-एक प्रश्न संक्षेपमें नीचे दिये जा रहे हैं:

चूँकि असहयोगके कुछ कट्टर समर्थकोंका अब उसमें विश्वास नहीं रह गया है और चूँकि राष्ट्रीय पाठशालाओंमें जानेवालोंकी संख्या घटती जा रही है, इसलिए इन लड़खड़ाते हुए स्कूलों और कालेजोंका अस्तित्व बनाये रखने तथा निकम्मी संस्थाओंपर लोगोंकी गाढ़ी कमाईके पैसे बरबाद करनेसे क्या लाभ है?

मेरे श्रद्धालु मनको इस तर्कमें एक दोष दिखाई देता है। चूँकि असहयोगमें मेरा विश्वास सदाकी भाँति दृढ़ है, इसलिए मेरे लिए तो इन मौजूदा राष्ट्रीय संस्थाओंमें तब भी संतोषका आधार ढूँढ सकना सम्भव है जब इनमें पढ़नेवाले विद्यार्थियोंकी संख्या घटकर केवल आधा दर्जन रह जाये। कारण, वे आधे दर्जन विद्यार्थी ही स्वराज्यके निर्माता होंगे; उसका प्रादुर्भाव चाहे जब भी हो। जब कतिपय धार्मिक कृत्योंके सम्पादनके लिए कुमारिकाओंकी आवश्यकता पड़ती है, तब यदि कोई कुमारिका न मिल सके तो उसके स्थानपर किसी अन्यको स्वीकार नहीं किया जाता है। और यदि एक ही कुमारी मिल जाती है तो काम चला लिया जाता है। इसी तरह स्वराज्यका झंडा गाड़नेका काम भी होगा। वह झंडा उन्हीं लोगोंके निष्कलुष हाथोंसे लहराया जायेगा, जो अपने मूल सिद्धान्तके प्रति सच्चे रहेंगे, भले ही ऐसे लोग बहुत थोड़े क्यों न हों।

इसलिए राष्ट्रीय पाठशालाओंको चालू रखना मैं पैसेकी बरबादी नहीं मानता। ऐसी जितनी पाठशालाएँ हैं, समझिए कि रेगिस्तानमें उतने ही नखलिस्तान हैं। वे स्वतन्त्रताके लिए प्यासी आत्माओंको जीवनामृत देती हैं। ऐसा लिखकर मैं उन लोगों की कोई निन्दा नहीं कर रहा हूँ जो सरकारी स्कूलोंमें पढ़ते या किसी भी प्रकारसे उनका समर्थन करते हैं। वे चाहें तो ऐसा मत रखनेका उन्हें हक है कि जिस रास्तेपर वे चल रहे हैं, स्वतन्त्रता प्राप्त करनेका एकमात्र रास्ता वही है या

  1. देखिए "असहयोग और राष्ट्रीय शिक्षा", ३०-५-१९२६ भी।