६०९. पत्र: तेहमीना खम्भाताको
साबरमती आश्रम
रविवार [३० मई, १९२६]
तुम्हारा पत्र मिला। मैं तीन मंजिल चढ़कर तुमसे मिलने आया, इस बातको तुमनें व्यर्थ ही तूल दे दिया है। यदि हम लोग परस्पर इतना भी नहीं कर सकते तो हमारा जन्म व्यर्थ हुआ माना जायेगा। मैं तो यह चाहता हूँ कि मेरे किन्हीं शब्दोंसे भाई बहरामजीको शान्ति मिले। दुःख-सुख तो शरीरके साथ जुड़े हुए हैं। इन्हें सहन करनेमें ही हमारा मनुष्यत्व सिद्ध हो सकता है। श्रीमती एडीकी पुस्तक पढ़कर मैं अवश्य अपना अभिप्राय लिखूँगा। लेकिन मेरा आग्रह है कि इस बीच बहरामजी उचित दवाका त्याग न करें।
बापूके आशीर्वाद
गुजराती पत्र (सी॰ डब्ल्यू॰ ४३६४ ) की फोटो-नकलसे।
सौजन्य: तेहमीना खम्भाता
६१०. पत्र: हरिलालको
साबरमती आश्रम
रविवार, ३० मई, १९२६
आपके पत्रका उत्तर 'नवजीवन' में नहीं दिया जा सकता। मुझे तो ऐसा लगता है कि शिक्षा आदिमें जैसे सुधार आप चाहते हैं वैसे फिलहाल तो नहीं हो सकते। ये सब सहिष्णुताके चिह्न हो सकते हैं किन्तु सहिष्णुताके प्रेरक कारण नहीं बन सकते। फिलहाल तो अलग-अलग रहनेके बावजूद यदि हम एक-दूसरेको सहन करें तो भी काफी है। अन्तरजातीय विवाह कैसे हो सकते हैं, यह बात मेरी समझमें तो नहीं आती। एक घरमें एक शाकाहारी हो और दूसरा मांसाहारी, यह कैसे हो सकता है? ऐसे दम्पतीकी सन्तानका लालन-पालन कैसे, किस परम्पराके अनुसार होगा? ऐसे विषम मिश्रणसे इसके अलावा अन्य अनेक प्रश्न उठ खड़े होंगे। आपने जो विचार सुझाये हैं उन सब विचारोंपर फिलहाल अमल करवानेका अर्थ विरोधके एक नये कारणको जन्म देना होगा; अथवा राजनीतिक एकताको बनानेकी बातको और कठिन बनाना होगा। जब राजनीतिक ऐक्य और अन्य प्रश्नोंका परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं