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पत्र: के॰ टी॰ पॉलको

  मुझे मालूम हुआ है कि आप पूना पहुँच गये हैं। यद्यपि मैंने स्वामीसे बात नहीं की है, लेकिन मुझे पूरा भरोसा है कि बिना किसी विशेष कठिनाईके हम यहाँ आपके लिए 'सर्वेंट् ऑफ इंडिया' की छपाई कर सकते हैं। अगर व्यवहार्य हो तो इस छोटे-से अनुरोधको अवश्य स्वीकार कीजिए। आपसे यह कहनेकी जरूरत नहीं कि इसके स्वीकार कर लिये जानेसे मुझे अतीव प्रसन्नता होगी। कारण, यद्यपि वैसे देखा जाये तो आप लोगोंकी संस्थामें मैं शामिल नहीं हूँ। लेकिन मैं भावनात्मक रूपसे तो अपने-आपको सदासे आपकी संस्थामें शामिल मानता आया हूँ—— देशके लिए महत्त्वके अनेक प्रश्नोंपर मेरे और आपके बीच जो बुनियादी मतभेद हैं, उनके बावजूद भी।

हृदयसे आपका,

परममाननीय वी॰ एस॰ श्रीनिवास शास्त्री


सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी
डॅकन जीमखाना पोस्ट


पूना सिटी

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ १०९१३) की फोटो-नकलसे।

६०२. पत्र: के॰ टी॰ पॉलको[१]

साबरमती आश्रम
३० मई, १९२६

प्रिय भाई,

आपका पत्र मिला। श्री एन्ड्रयूज पिछले तीन दिनोंसे मेरे साथ हैं। हमारे बीच हुआ सारा पत्र-व्यवहार उन्होंने पढ़ लिया है और हम दोनों इस निष्कर्षपर पहुँचे हैं कि निमन्त्रण अन्तिम रूपसे स्वीकार कर लिया जाये। सो मैं उसे स्वीकार करता हूँ, लेकिन बहुत संकोच-विकोचके साथ। मेरे इस संकोच-विकोचका कारण मेरे ही मनका संशय है। कह नहीं सकता कि मुझे और मेरे साथियोंको फिनलैंड ले जानेमें जो उतना सारा खर्च उठाना पड़ेगा, वह ठीक है या नहीं। लेकिन ईश्वरकी इच्छाको मनुष्य क्या जाने? और मुझे तो सिर्फ इतनी-सी बातका सन्तोष है कि मैंने किसी तरह की उतावली नहीं की है——बल्कि अपनी ओरसे फिनलैंड जाना भी नहीं चाहा है। अब आप जैसी चाहें वैसी व्यवस्था करें।

देखता हूँ, आप वापसी टिकट लेंगे और लन्दन तथा हेलसिंगफोर्सके बीच भी आप वापसी टिकट ही लेनेकी सोच रहे हैं। लेकिन, मैं आपको बता दूँ कि अगर

  1. यह पत्र शामको ३ बजे बोलकर लिखवाया गया था, लेकिन भेजा नहीं गया। सचिवको टिप्पणीके अनुसार गांधीजीने "एकान्तमें प्रार्थना करनेके बाद अपना फैसला बदल दिया।" गांधीजीके अन्तिम उत्तरके लिए देखिए "तार: के॰ टी॰ पॉलको", ३१-५-१९२६।
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