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६००. पत्र: एस॰ जी॰ वझेको

साबरमती आश्रम
३० मई, १९२६

प्रिय वझे,

सोसाइटीके प्रकाशनोंके बारेमें आपकी गश्ती-चिट्ठी मिली। अभी-अभी मालूम हुआ है कि शास्त्री वहीं हैं। लेकिन, चूँकि उनके नाम मेरे पत्रमें लिखी गई बातें ऐसी हैं जिनपर तत्काल ध्यान देना आवश्यक है, इसलिए इस भयसे कि कदाचित् वे वहाँ नहीं हों, उस पत्रकी एक नकल आपको भी भेज रहा हूँ। और अगर मेरे प्रस्तावको स्वीकार करना सम्भव लगे तो फिर आपको पूरी छूट होगी कि आप आश्रममें आकर रहें और साथमें जितने लोगोंको लाना चाहें, ले आयें और जबतक पूनामे प्रेस फिरसे खड़ा नहीं कर लिया जाता तबतक यहींसे [सोसाइटीके] पत्रका सम्पादन करें।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत एस॰ जी॰ वझे


सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी
डॅकन जीमखाना, डाकघर


पूना सिटी

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ १०९१२) की फोटो-नकलसे।

६०१. पत्र: वी॰ एस॰ श्रीनिवास शास्त्रीको

साबरमती आश्रम
३० मई, १९२६

प्रिय मित्र,

आपकी फटकारके बावजूद मैं अखबार पढ़नेका खयाल नहीं करता, सो मुझे मालूम नहीं था कि इन दिनों आप कहाँ हैं। निदान मैंने देवधरको ही उस भीषण अग्नि-काण्डपर अपना दुःख प्रकट करते हुए पत्र लिखा, जिसमें सोसाइटीका प्रेस जल कर राख हो गया। उसमें मैंने कहा है कि आपके प्रकाशनोंके सम्बन्धमें मुझसे जो-कुछ बन सकता है, वह सेवा करनेको मैं तैयार हूँ। अब मुझे वझेकी एक गश्ती चिट्ठी मिली है। उसमें उन्होंने मुझसे यह घोषित कर देने को कहा है कि जबतक नई व्यवस्था नहीं कर ली जाती, 'सर्वेंट ऑफ इंडिया' और 'ज्ञान प्रकाश' का प्रकाशन नहीं हो सकेगा।